रक्षा के नाम पर कैसा मजाक ?
सायरन बजेगा,
बत्ती बुझाओ?
'अंधेरा करो, दुश्मन को चकमा दो!'
मगर ये क्या ?
ये तो 2025 की मिसाइलें हैं।
ये अपने टारगेट का पता जानने के लिए।
रोशनी का मोहताज नहीं होती हैं।
ये पूछेंगी:
'कौन सा गाँव? कौन सा शहर?
GPS तो पता बता देगा!'
फिर ये चकमा किसे?
पर सवाल कौन पूछेगा?
क्यों ऐसा नाटक?
'डर का बीज बोओ,
युद्ध का नशा पिलाओ,
असली मुद्दों पर पर्दा डालो!
जब बेरोज़गारी, गरीबी, बदहाली छाए,
तो 'दुश्मन' का भूत दिखाकर भटकाओ!'"
2025 में "ब्लैकआउट ड्रिल" के नाम पर सरकार जनता से कह रही है: "बत्ती बुझाओ, दुश्मन को चकमा दो!" पर सवाल यह है कि यह नाटक किसकी सुरक्षा के लिए है? आधुनिक युद्ध-प्रौद्योगिकी के युग में, जहाँ मिसाइलें GPS और सैटेलाइट से टारगेट ढूँढती हैं, बत्ती बुझाना एक ढोंग है। यह नीति नागरिक सुरक्षा नहीं, बल्कि वर्गीय विषमताओं को छुपाने का औज़ार है। एक तरफ महंगाई है, बेरोजगारी है, भ्रष्टाचार है, भुखमरी है,… अमीरी गरीबी की खाई से विषमता बढ़ती ही जा रही है। अमीर और अमीर गरीब और गरीब होता जा रहा है।
- 1939 से 1945 के विश्व युद्ध में और 1965-1971 के भारत-पाक युद्धों में ब्लैकआउट एक कारगर रणनीति थी। उस ज़माने में दुश्मन के पायलट शहरों की रोशनी देखकर बम गिराते थे। न GPS, न सैटेलाइट—बस आँखों का खेल था। बत्ती बुझाई, दुश्मन अंधेरे में भटक गया। लेकिन 2025 में मिशन अंधेरा? ये तो वैसा ही है जैसे स्मार्टफोन के ज़माने में टेलीग्राम भेजने की बात करो! आज की मिसाइलें और फाइटर जेट्स GPS, सैटेलाइट, इंफ्रारेड, और AI से चलते हैं। इनके लिए रोशनी की नहीं, लोकेशन की ज़रूरत होती है। और वो लोकेशन? आपके मोबाइल, वाई-फाई राउटर, या मोबाइल टॉवर से मिल जाती है। तो बत्ती जल रही हो या बंद, इन हथियारों को क्या फर्क पड़ता है?
सायरन का मतलब होता है लोगों को अलर्ट करना, सुरक्षित जगहों यानी बंकरों में भेजना। लेकिन सवाल ये है— क्या हमारे पास बंकर हैं? हर शहर, हर मोहल्ले में कोई ढंग की व्यवस्था है? नहीं ना! बंकर नहीं, तो सायरन बजाकर क्या फायदा? ये तो वैसा ही है जैसे बिना छत के घर में बारिश का अलार्म बजाओ!
अगर सरकार सच में युद्ध की तैयारी कर रही है, तो पहले बंकर बनवाए, लोगों को ट्रेनिंग दे कि सायरन बजे तो कहाँ भागें, क्या करें। बुनियादी ज़रूरतें: बंकर में खाना, पानी, दवा, हवा की व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन अभी तो कुछ भी नहीं है। तो फिर ये “सायरन-बत्ती” माक ड्रिल थोड़ा नाटक-सा लगता है— स्क्रिप्ट तो है, पर सेट तैयार नहीं। सरकार का यह कदम वैज्ञानिक अज्ञानता या जानबूझकर की गई नाटकीयता को दर्शाता है।
कौन झेलता है अंधेरा?
शहरी गरीब और मजदूर वर्ग
असलियत में इनके पास न बंकर हैं, न बिजली के जेनरेटर। ब्लैकआउट में ये अंधेरे झुग्गियों में दम तोड़ते हैं।
जब अस्पतालों में बिजली कटती है, तो कैसे बचेंगे नवजात? जिनके पास इंटरनेट नहीं, वे सायरन का संदेश कैसे सुनेंगे?
ग्रामीण किसान और मज़लूम
असलियत में गाँवों में तो पहले से ही बिजली कटौती की जीवनशैली है। यहाँ युद्ध ड्रिल नहीं, महंगाई, बेरोजगारी, माइक्रोफाइनांस कम्पनियों के कर्ज़ का मकड़जाल और उन कर्ज के तले दबकर आत्महत्या से लड़ाई चलती है। उनके लिए असली युद्ध कर्ज़, सूखा, और आत्महत्या है।
क्या मिसाइलों का खतरा उनके लिए उतना बड़ा है, जितना बैंकों का ऋण-जाल? गांवों में कर्ज का बोझ मिसाइलों से भी बड़ा खतरा है।
असलियत में शासक वर्ग के बंगलों में इमरजेंसी जेनरेटर, प्राइवेट बंकर, और सुरक्षा गार्ड हैं। युद्ध का खेल इनके लिए मात्र एक मनोरंजन है। यह वर्ग "दुश्मन" के नाम पर हथियारों के व्यापार से मुनाफा कमा रहा है? जनता को इन सबमें उलझाकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटका रहा है।
शासक वर्ग डर का खेल खिला रही है। डर में लोग सवाल कम पूछते हैं। “दुश्मन आ रहा है” का हौवा खड़ा कर दो, सब लाइन में लग जाएँगे। साथ में ही जनता को देशभक्ति का डोज़ दे रही है। जो सवाल उठाए, उसे “देशद्रोही” कह दो। यदि किसी ने बत्ती न बुझाई, तो पड़ोसी व्हाट्सएप पर फोटो वायरल कर देगा, ये तो देशद्रोही है!
असली समस्याओं से पर्दा: बत्ती बुझाने में लोग अंधेरे में होंगे, तो बिजली का बिल, पेट्रोल की कीमत, चिकित्सा, शिक्षा… की हालत पर ध्यान कौन देगा? महंगाई, बेरोजगारी, कालाबाजारी, मिलावटखोरी, जमाखोरी… पर सवाल कौन कौन करेगा क्योंकि अंधेरा कर डरा दिया गया है।
ये पहली बार भी नहीं है। याद है पीएम का “बादल बनाम रडार” वाला किस्सा? जब कहा गया कि बादलों से रडार चकमा खा गया! दुनिया हँसी, पर भक्तों ने ताली बजाई। अब 2025 में फिर वही स्क्रिप्ट—बत्ती बुझाओ, दुश्मन को चकमा दो। लेकिन भाई, रडार और मिसाइलें बादल या रोशनी से नहीं, सेंसर और डेटा से चलती हैं। दिमाग की बत्ती जलाओ।
युद्ध के बजाए शहरी गरीबों के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करें। सार्वजनिक बंकर बनाएँ, जहाँ बिजली, पानी, और दवाइयों का प्रबंध हो। सार्वजनिक परिवहन और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश हो।
युद्ध के बजाए ग्रामीणों के लिए सिंचाई और सस्ती बिजली की व्यवस्था करें, खेतों को सूखे से बचाने के लिए सोलर पंप लगवाएं। गाँवों में साइबर शांति केंद्र खोलो, जहाँ युवा टेक्नोलॉजी और कूटनीति सीखें।
बत्ती बुझाने" की बजाय, सरकारी बजट और नीतियों पर सवाल उठाना सिखाओ। न कि मिसाइलों के डर से बत्ती बुझाना।
ब्लैकआउट ड्रिल सिर्फ़ बत्ती नहीं बुझाती, यह समाज के अमीर गरीब की खाई को और गहरा करती है। जब तक गरीब की चिंता बंकर नहीं, अमीर की चिंता टैक्स छूट है, तब तक यह नाटक जारी रहेगा। हल यही है कि सभी को उसकी योग्यतानुसार काम और काम के अनुसार दाम। गुणवत्तापरक और कम से कम कीमत में स्वास्थ्य और शिक्षा। सभी को उसके की बिजली उसके हिस्से का पानी और उसके हिस्से की जमीन उपलब्ध कराएं। जिस दिन देश में अमीर गरीब की खाई मिटा देंगे उसी दिन से सीमाओं पर दुश्मन खुद हार मान जाएंगे।
जब तक अमीर की चिंता मुनाफा और आपदा में अवसर है तथा गरीब की चिंता रोटी, तब तक 'ब्लैकआउट ड्रिल' सिर्फ़ अंधेरा फैलाएगी!
- रावसाहेब शिंदे.
मो. ७०२०६०२०२७