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अहिंसा मनुष्य रचती है

क्या अहिंसा केवल आंदोलनों, उपवासों और नारेबाज़ी तक सीमित है? नहीं। अहिंसा एक सोच है, एक संवेदना है, एक जीवन दर्शन है। यह वह शक्ति है जो मनुष्य को पशुता से अलग करती है, जो मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है।

अब ज़रा रुकिए और कल्पना कीजिए उस जवान की जो सर्द हवाओं में बर्फीली सरहद पर तैनात है, या तपती धूप में सीमा पर निगरानी कर रहा है। क्या वह युद्ध चाहता है? क्या वह किसी का खून बहाना चाहता है? नहीं। वह भी एक इंसान है, किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी का पति। वह भी चाहता है कि उसका बच्चा स्कूल जाए, वह अपने परिवार संग त्योहार मनाए, वह भी शांति में जीना चाहता है।

फिर भी जब भी युद्ध की बात होती है, जब भी राष्ट्रभक्ति की आड़ में खून मांगने वाली भाषणबाज़ी होती है, तो यह सिपाही ही सबसे आगे खड़ा किया जाता है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए – जिनके लिए वह जान जोखिम में डालता है, वही समाज कभी उसकी चुप इच्छाओं को नहीं सुनता।

युद्ध कभी किसी का समाधान नहीं रहा। हर युद्ध के बाद सिर्फ जले हुए घर, उजड़ी हुई आंखें और टूटे हुए सपने बचते हैं। युद्ध केवल नेताओं के भाषणों में वीरगाथा बनता है, ज़मीनी हकीकत में वह माताओं की गोद सूनी करता है।

वास्तविक देशभक्ति यह है कि हम ऐसा समाज रचें जहाँ युद्ध की ज़रूरत ही न पड़े। जहाँ कूटनीति, संवाद और परस्पर सम्मान से समस्याओं का हल निकले। यही वह जगह है जहाँ अहिंसा मनुष्य को रचती है – एक ऐसा मनुष्य जो तलवार नहीं, समझदारी से विजयी होता है।

हम जब सिपाही को सम्मान देते हैं, तो उसका मतलब यह नहीं कि हम उसे युद्ध के लिए उत्साहित करें। उसका असली सम्मान तब है जब हम ऐसी दुनिया बनाएं जहाँ उसे हथियार न उठाना पड़े।

अंततः, यह हम पर है – समाज पर – कि हम कैसी दुनिया चाहते हैं। क्या हम ऐसी सभ्यता रचना चाहते हैं जहाँ सैनिक केवल युद्ध के लिए नहीं, शांति के प्रहरी के रूप में जाना जाए? या हम फिर से वही चक्र दोहराना चाहते हैं जहाँ अंतहीन युद्ध हों और अंतहीन दुख?

विचार कीजिए। क्योंकि सच्चा वीर वही है जो शांति चाहता है, और सच्चा समाज वही है जो अपने वीरों को युद्ध नहीं, जीवन देता है।

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