अंग्रेजी राज में मेरठ मे हुई इह वारदात ने सब को हिला कर रख दिया।
एक तव और नवाबजादे की प्रेम कहानी की शुरुआत और अंत देखने वाले अपने जीवन के अंत तक याद कर रोते थे। भी जब तब
उस घटना चर्चा आज भी गाहे बगाहे उस दास्तान के चर्चे मैरठ व हांसी में हो होते रहते हैं ।
तो आईये जानते वह कांड क्या था।
इससे पहले कि मैं आआपको इस सत्य घटना के पात्र से अवगत करवाऊं पहले हम हांसी और उस शाही खानदान के बारे में जान लें जिसका वह युवक था।
हांसी हिंदुस्तान के प्राचीन वैभवशाली ऐतिहासिक शहरों में से एक है। आजादी के बाद भले ही यह ऐतिहासिक शहर भ्रष्ठाचार, कुव्यवस्था के कारण कुङेदान बन चुका हो लेकिन इसका एक गौरवशाली अतीत है और यह हरयाणा देश की राजधानी भी रह चुका है। देहली या अजमेर की राजगद्दी पर बैठने वाला शायद ही कोई शासक हो जिसका संबंध किसी न किसी रुप में हांसी न रहा हो ।
जब बाबर नें हिंदुस्तान पर हमला किया और व अंबाला के पास पडाव डाले था तो हिसार का सुबेदार हमीद खां अपनी सेना के साथ उससे टकराने आगे बढा । हमीद खान का मुकाबला करने युवा हुमायूं अपनी टुकङी के साथ बढा। हमीद खा मैदान छोङकर भागा तो हुमायूं उसका पीछा किया और हिसार के पास उसे गिरफ्तार कर लिया। तब उसने हिसार के पास कुदरदती जंगल,जंगलात, बागबगीचों, से घिरे चारदीवारी में शानदार हांसी को देखा। यह शहर और यहां का वातावरण उसे बहुत भाया।
1526 में पानीपत के युद्ध में विजय प्राप्त कर जब बाबर नें हिंदुस्तान पर कब्जा कर लिया तो उसने युवा हुमायू को राजनैतिक प्रशिक्षण के हांसी, हिसार का सुबेदार नियुक्त किया। और युवा हुमायूं का साथ देने के लिये बाबर ने अपने चचेरे भाई बिंदू बेग को नियुक्त किया। बिंदू बेग अपने परिवार को लेकर हांसी में आकर रहने लगा। जिस जगह उसने अपना आवास बनाकर रहणा शुरु किया उसे मौहल्ले मुगलसराय कहा गया। जिसे आजादी के बाद मौहल्ले रामपुरा कहा जानें लगा।
वक्त गुजरा हुमायू बादशाह बना। और हांसी में उनका यह मुगल खानदान दरबारी बनता रहा। हांसी के इस मुगल खानदान में एक से बढकर एक नामी लोग हुए। 1857 के गद्दर में मिर्जा मुनीर बेग और मुर्तजा बेग शहीद हुए है।
हांसी मन्यूस्पल बोर्ड का गठन ,1885 में हुआ इसके पहले मनोनीत उपाध्यक्ष मिर्जा अब्दुल गफ्फार बेग थे।
इनके दो बेटे थे। बङे का नाम अतर बेग तो छोटे का नाम अख्तर बेग था। यही अख्तर बेग हमारी इस कहानी का नायक है।
हांसी के मुगल खानदान का दिल्ली और हांसी में काफी प्रभाव था। म
हांसी के मुगल खानदान को मिर्जा खानदान भी कहा जाता था। अंग्रेजी हकूमत में भी मिर्जा खानदान का प्रभाव बरकरार रहा।
हांसी के मुगल खानदान की एक बङी जमींदारी थी। हिसार, हांसी क्षेत्र में हजारों एकङ भूमि थी और मुजारों के अनेक गांव थे। धन माया की कमी न थी।
मिर्जा अब्दुल गफ्फार बेग को हांसी का नवाब भी कहा जाता था। हांसी के सभी वर्गों में उनका बहुत सम्मान था। लोग उन्हें मिर्जा जी कहते थे। एक बङी हवेली में उनका परिवार रहता था तो एक बङा मौहल्ले मुगल खानदान का था।
मिर्जा जी का बङा बेटा अतर बेग शारीरिक रुप से कमजोर और बिमार रहता था। तो छोटा बेटा अख्तर बेग अच्छे डीलडोल वाला ऊंची कद काठी का नूरानी चेहरे वाला गौरा चिट्टा गबरु जवान था। समयानुसार अख्तर बेग की शादी जमालपुर गांव में हुई। अख्तर बेग की बेगम ने एक सुंदर हष्टपुष्ट बच्चे को जन्म दिया। जिसका नाम मुन्ना रखा गया।
यह वह समय था जब समाज अपने परंपरागत नियमों और संस्कारों पर चल रहा था। मनोरंजन के साधन भी सिमित थे। तवायफों ,कोठों का चलण था। हर उस शहर में कोठे होते थे जहां मंडियां व सैनिक छावनी होती थी। मेले, ठेले, उर्स में लोग बढचढ कर भाग लेते थे।
हांसी में भी गली हलवाई में नीचे हलवाई की दुकानें ऊपर चौबारों में तवायफ अपना धंधा करती थी।
उन दिनों मेरठ के नौचंदी का मेला काफी मशहूर था
जो हर साल होली के बाद आने वाले रविवार से शुरु हो जाता था। नौचंडी देवी व बाले मिंया की मजार पर हर साल लगने वाला यह मेला हिंदू, मुस्लमान एकता और संभावना की एक मिसाल था। मेले को देखने और खरीद फरोख्त करने दूर दूर से लोग आते थे।
हांसी के मिर्जा जी एक कार भी ले आये थे। जमींदारी थी तो अख्तर बेग अपनी जमींदारी संभालता, अपनी राइफल लेकर शिकार खेलता । गजब का निशानेबाज था। अख्तर हो या मिर्जा जी जब भी हवेली से बाहर जाते तो इनके परिवार का रियाज बेग उर्फ बिंदू बेग अपनी बन्दूक लेकर साये की भांति उनके साथ रहता।
साल 1930 मेरठ के नौटंकी मेले में मिर्जा अख्तर बेग कार चालक यूसुफ बेग उर्फ बागङी, रियाज बेग उर्फ बूंदू जा पहुंचे। जब वह मेले में गये तो मेरठ के वैली बाजार के कोठों के भङुवों ने उनके इर्द-गिर्द मंडराणा शुरु कर दिया और नयी कमसिन तवायफ तमीज के हुस्न और नाच गाने के तारीफों के पुल बांधने लगे।
मेरठ का वैली बाजार में दुकानों के ऊपर तवायफों के कोठे थे।
उन दिनों 19 साल की कमसिन और बेहद खूबसूरत तमीज ने तमाम तालिम हांसिल कर महफिल सजाना शुरू कर दिया था। रईस,नवाब, धनवान, जमींदार मन बहलाने को कोठों पर जाते थे। मेरठ के निकट धौलङी गांव की तमीजन ने जैसे ही कोठे पर महफिल सजा कर नाच गाणा शुरु किया। तो चंद दिनों में ही उस पर चांदी के सिक्के बरसते लगे और वह वैली बाजार की सबसे अमीर तवायफ बन गई। लेकिन अभी तक उसकी नथ नहीं उतरी थी। क्योंकि उसकी बङी बहन 28 साला गौहर, पिता 55 साला खादिम हुसैन, मां और एक 13 साल की छोटी बहन इकबाल कोठे साथ लगते कमरों में रहते थे। और तमीज पर बरस रहे धन पर मौज कर रहे थे। पिता पहलवान खादिम तो मेरठ के रेसकोर्स में दो घोङे भी दौङाता था। यानि दोनों हाथों धन बटोर रहे थे। यही कारण था कि तमीज की नथ उतराई के लिये अच्छी खासी रकम अदा करने वाले रसिक का इंतजार रहे थे।
मेले में जब मिर्जा अख्तर ने तमीज के हुस्न के बारे में सुना तो वह भी उसके कोठे की तरफ जानने को बेकरार हो गया।
जैसे ही महफिल सजणे का समय हुआ।
वैली बाजार के एक तरफ कार रोक कर मिर्जा और बूंदू तमीज के कोठे की सीढियों की तरफ कदम बढाये तो कोठे आती गाणे की मधुर आवाज से वह मंत्र मुग्ध हो गये। जैसे ही वह कोठे के दरवाजे पर पहुंचे तो चिलमन से भीतर झांका तो सामने खङी गोहर ने जब मिर्जा को देखा तो समझ गई कि मालदार असामी है वह आगे बढी और बङी अदा से मिर्जा का हाथ थामा और तमीज के सामने आसन पर बैठा दिया।
आसन पर बैठते ही बूंदू बेग नीचे आ गया।
तमीज ने जब 22 साल के अख्तर को देखा तो उसके नूरानी चेहरे को देखती ही रह गयी । इधर जब अख्तर ने तमीज को देखा तो उसके बला के हुस्न को देखता ही रह गया। अब तमीज की आवाज में और रवानी आ गई। इधर अख्तर भी चांदी के सिक्के बिखेरता रहा।
समय हुआ महफिल से सभी चले गये लेकिन मिर्जा अख्तर अपने आसन पर जमा रहा तमीज भी गाती रही दोनों एक दूसरे में खोये हुए थे कि देर रात हो चुकी थी। वैली बाजार के सभी कोनों से घुँघरूओं की आवाज आणा बंद हो चुकी थी।
अख्तर कोठे से तो उतर आया लेकिन दिल तमीज के कोठे पर छोङ आया।
कार में बैठे और मेरठ में अपने मिलने वालों के घर आ गये।
रात और दिन मुस्किल से गुजरे दिन ढलते ही। कार वैली बाजार पहुंची और मिर्जा अख्तर तमीज के कोठे के महफिलखानें में जा बैठा । तमीजन भी जैसे उसी का इंतजार कर रही थी।
इस तरंह से सप्ताह गुजर गया। अख्तर वापिस हांसी आना भूल गया। अख्तर की इस तरंह दिवानगी को देखकर बूंदू बेग को चिंता हुई और उसने तुरंत हांसी पहुंच कर मिर्जा जी को सारी हकीकत बताई ।
उधर मौका पाकर अख्तर ने भी तमीजन को बाहों में लेकर अपने मन की बात कह दी हम तुम्हें अपनी बेगम बनाना चाहते हैं।
जब तमीज की बहन गोहर और पिता को यह भनक लगी तो वह सकते में आ गये। क्योंकि तमीजन तो उनकी टकसाल थी। इसे इतनी जल्दी कैसे खो सकते थे। छोटी बहन इकबाल अभी बच्ची थी जिसे तैयार होने में अभी कई साल थे। परिवार गहरी चिंता में पङ गया।
इधर अपने बेटे को एक तवायफ के मौहजाल में फंसे देखकर मिर्जा जी को गहरी चिंता हो गई घर में पहले से एक बीबी और बच्चा थे। और शाही खानदान का बेटा तवायफ के मौहजाल में फंस चुका था।
मिर्जा जी मेरठ गये बेटे को समझाया सब बेकार। दोनों की शादी करने की बात की। मालदार असामी और अपने भविष्य को ध्यान में रखकर गोहर ने व पिता ने मिर्जा जी से इतनी बङी रकम मांगने की चाल चली कि जिसे सुनकर बाप बेटा भाग जायेंगें। और अगर अदा कर दी तो परिवार का भविष्य सुरक्षित हो जायेगा।
गोहर और खादिम नें मोटी रकम दस हजा़र रूपये मांग ली।
एक बाप ने अपने बेटे की खातिर उस समय जब सोने का भाव बीस रुपये तोला था। 1930 में यह रकम अदा कर दोनों की शादी कराकर बहादुरगढ में रजिस्ट्रेशन करवा कर अख्तर अपनी नयी बेगम को कार में बैठा हांसी आ गया। उमरा दरवाजे से कार बजरिया, धौला कुआ से अपनी हवेली की तरफ आयी। हवेली में नयी दुल्हन का स्वागत तो हुआ लेकिन परिवार की औरतों ने दूरी रखी।
मेरठ में अख्तर और तमीजन की शादी की गली गली चर्चा हुई। हैरानी यह थी कि एक तवायफ के लिए इतनी बङी रकम अदा करणा। मेरठ के वैली बाजार की एक तवायफ का एक शाही मुगल खानदान में बेगम बनना। दोनों के प्यार और हुस्न की भी खूब बात हुई।
हांसी में अख्तर अपनी नयी बेगम के आगोश मे गुम हो गया।
हवेली में अख्तर के परिवार की औरतें तमीजन से दूरी बना कर रखती थी।
तमीजन भी कोठे के दस्तूर तो जानती थी लेकिन बङे घरों के अदब, रियायतों का उसे कुछ मालूम न था।
अब हवेली का वातावरण अजीब हो गया। आये दिन क्लेश रहते लगा। तो मिर्जा जी ने बेटे अख्तर को समझाया कि तमीजन को कुछ दिनों के लिये मेरठ में इसके परिवार में छोङ आये और कहे कि इसे बङे घरों के दस्तूर भी सिखायें।
पिता का कहणा मानकर अख्तर तमीजन को मेरठ में उसे परिवार के पास यह कहकर कि इसे कोठे के महफिल खाने से दूर रखकर। घरेलू अदब सिखाये छोङ कर हांसी आ गया।
तमीजन को फिर से अपने बीच देख परिवार खुशी से बेहाल हो गया। वैलीबाजार में व मेरठ और आसपास सभी को खबर हो चली कि तमीजन वापिस आ गई है।
कुछ दिन गुजरे अख्तर मेरठ में तमीजन को लेने पंहुचा। जैसे वह कोठे पर गया तो देखा कि महफिलखाने में उसकी बेगम रसिकों के बीच महफिल सजाये बैठी है। अख्तर ने आगे बढकर तमीजन की बाजू पकङी और अंदर ले गया व हांसी चलने के लिए कहा तो तमीजन नें उसके साथ चलने से साफ इंकार कर दिया । तमीजन के पिता और बहन गोहर ने अख्तर को जलील कर कोठे से भगा दिया।
अपने प्यार का यह बदलाव देखकर अख्तर भीतर से टूट गया। हांसी आकर वह गुमसुम हो गया। और चंद दिनों में ही लाईलाज बिमारी से पिङित मरीज सा दिखने लगा।
बेटे की यह हालत देखकर एक दिन मिर्जा जीअपने साथ बूंदू को लेकर कार में बैठकर मेरठ तमीजन के कोठे पर पहुंचे और तमीजन को हांसी चलने के लिये कहा।नतमीजन के पिता और मिर्जा जी में काफी बहस हो गई। बीच में गोहर भी आ गई और मिर्जा जी की बेज्जती करणे लगी। बूंदू से मिर्जा जी का अपमान सहन नही हो रहा था। लेकिन वह अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कर सकता था। तमीजन नहीं आयी और मिर्जा जी अपनी जिंदगी में पहली दफा जलील हुएणवह भी किसी कोठे परव। अब वह हांसी आ गये। उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। लेकिन बुंदूं से नहीं रहा गया। और उसने सारी बातें अख्तर को बता दी।
अख्तर नें अपनी राइफल ,गोलियां, पानी का लौटा लिया, बूंदू ने भी अपनी बंदूक, कारतूस की पेटी ली कार में बैठे गये। चालक बागङी कार को मेरठ ले चला।
आज अख्तर के दिल में एक तुफान था। वैलीबाजार से पहले गली में कार रोक कर मिर्जा अख्तर और बूंदू तेज गति से तमीजन के कोठे पर चढे। तमीजन महफिल सजाये बैठी थी। अख्तर ने तमीजन को बाजू से पकङा और कहा चलो बेगम हांसी। अचानक महफिल खाने में बदले हालात को देखकर रसिक तो सभी खिसक गये। तमीजन काठ बनकर खङी हो गई। हलचल सुनकर गोहर जैसे ही महफिलखाने में आयी और अख्तर को देखकर हाथ नचाते हुए कुछ कहने ही वाली थी कि राइफल से एक गोली चली और गोहर खामोश होकर फर्श पर गिर गई। गौली चलते ही कोठे पर भगदड़ मच गई। साजिंदे, सेवक, मां,बहन जिसे जिधर रास्ता मिला फरार हो गये। कोठे के दरवाजे पर बूंदू खङा था महफिलखाने में अख्तर, सामने तमीजन और फर्श पर बेजान गोहर। तभी तमीजन का पिता खादिम भी आ गया इससे पहले कि वह कुछ बोलता एक गोली और चली और वह भी लाश बणकर फर्श पर जा गिरा। अब मिर्जा अख्तर तमीजन की तरफ एक टक देख रहा था तो तमीजन मिर्जा को। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे क्या ना करे। तमीजन के लिये कोई रास्ता नहीं था। तभी तमीजन को सूझा कि उसके पीछे एक खिङकी है जो बाजार की तरफ है बस इससे कूदकर जान बच सकती है। मिर्जा अभी भी इस विचार में था कि अगर उसकी बेगम साथ चलती है तो ठीक है। लेकिन वह अपनी राइफल को लोड भी कर चुका था। अख्तर को विचारों में खोया देख तमीजन बिजली की गति से खिङकी की तरफ लपकी। इससे पहले कि वह कुदती एक और गोली चली जो उसकी पीठ में ध्यान गई। वह लुढ़क कर सङक पर जा गिरी और तङपने लगी। अख्तर ने खिङकी से नीचे सङक पर तमीजन को तङपते देखा तो ऊपर से छलांग लगा कर तमीजन की छाती में एक और गोली मार कर शांत कर दिया। सांझ ढल चुकी थी। मस्जिद से अजान हुई और अख्तर वापिस कोठे पर आकर नमाज पढने लगा। बूंदू ने काफी कौशिश की उसे कार में बैठाकर मेरठ की सीमा से बाहर निकलने की लेकिन अख्तर नहीं माना।
कंबोज दरवाजे के पास थाणे से पुलिस आयी। अख्तर, बूंदू, बागङी को गिरफ्तार कर लिया। थाणे में बूंदूं ने तीनों कत्ल करने स्वीकार कर लिये ताकि मालिक को बचाया जा सके। डी.एस.पी. और थानेदार भी अख्तर को छोङने के लिये तैयार हो गये लेकिन अपने प्यार की बेवफाई और धोखे ने उसे इतना तोङ दिया था कि उसमें अब जीणे की तमन्ना ही नहीं रही थी।
केस चला । यह पहला केस था जो इंग्लैंड में प्रीवी कौंसिल तक गया था। अंत में कार चालक बागङी रिहा हुआ, बूंदू को काले पानी की सजा हुई और मिर्जा अख्तर को फांसी।
इस केस की फाईल आज भी मेरठ के मुहाफिजखाने में रखी है। तमीजन,गोहर और खादिम की कब्र मेरठ के कब्रिस्तान में हैं।
यह घटना आज भले ही को मायने नही रखती लेकिन उस समय यह उत्तरी भारत की झकझोर देने वाली घटना थी। इस पर किताबें लिखी गई शायरी हुई, नाटक नौटंकी खेले गये । तीन फिल्म बनी। कपिल शर्मा के शो में अन्नु कपूर ने बताया था कि उसके पिता नौटंकी खेलते थे। नाटकों की
जो सूचि उन्होंने बतायी उसमे एक नाम
कत्लेआम तमीजन भी था
इस पर जब मैने काम किया तो कई बार मेरठ गया , नौचंडी मंदिर देखा। कब्रिस्तान देखा। केस का फैंसला हासिल किया। मेरठ में इस घटना के जानकार लोगों काफी मदद की। खासकर कंबो दरवाजे के अंदर सईद ढाबे वाले।जगदीश