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दादा मियाँ की रहनुमाई
दादा मियाँ की रहनुमाई
दादा मियाँ की रहनुमाई
हज़रत ख़्वाजा मोहम्मद नबी रज़ा शाह (क़द्दस अल्लाहु सिर्रहु) को सब्र (धैर्य) बहुत प्रिय था। आप दिखावा, अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर बोलना और बिदअत (धर्म में नई बातें जोड़ना जो शरीअत में न हों) को पसंद नहीं करते थे।आप दूसरों से बहस करने या तर्क-वितर्क करने से भी परहेज़ करते थे। आपने अपने मुरीदों (शिष्य) को यह तालीम दी कि वे लोगों को नेक कामों के लिए प्रेरित करें और बुरे कामों से रोकने की सलाह दें।
आपने यह भी फरमाया कि केवल तरीक़ात का ज्ञान ही काफी नहीं होता, बल्कि इंसान के पास दुनियावी समझ, अच्छा आचरण और दीन (धर्म) की सही जानकारी भी होनी चाहिए।
आपने यह भी हिदायत दी कि दूसरे तरीक़ों के तौर-तरीकों और उनकी रिवायतों से बचना चाहिए हर हालत में चाहे वह ज़ाहिरी (बाहरी) हो या बातिनी (अंदरूनी) अपने शैख़ (रूहानी मार्गदर्शक) के तरीक़े को पूरी तरह अपनाना चाहिए।
दुआ
हो दुआ कबूल हमारी, सदक़ा-ए ला तक नथु,
शहंशाह ए मोहम्मद नबी रज़ा के वास्ते।
सिलसिला-ए-आलिया ख़ुशहालिया!
संदर्भ:
मख़ज़न-ए-तसव्वुफ़ — हज़रत ख़्वाजा शाह मोहम्मद नबी रज़ा जहाँगीरी रहमतुल्लाह अलैह की मुक़द्दस जीवनी,
लेखक: मौलाना हाफ़िज़ मोहम्मद वारिस अली शाह, पृष्ठ संख्या: 303-306
Lucknow
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