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मल्टीप्लेक्स पर 'ताला': भोजपुरी सिनेमा का दम घुट रहा! इंडस्ट्री के राजनीतिक दिग्गज क्यों हैं मौन?

मल्टीप्लेक्स पर 'ताला': भोजपुरी सिनेमा का दम घुट रहा! इंडस्ट्री के राजनीतिक दिग्गज क्यों हैं मौन?
​लखनऊ/पटना (विशेष रिपोर्ट): भोजपुरी फिल्मों के आर्ट डायरेक्टर नजीर शेख की वह दहाड़, जिसे आज पूरे इंडस्ट्री का समर्थन मिलना चाहिए था, दुर्भाग्यवश राजनीतिक गलियारों की चुप्पी में खोती जा रही है। शेख की मांग स्पष्ट है: भोजपुरी फिल्मों को मल्टीप्लेक्स में अनिवार्य (कंपलसरी) किया जाए। यह मांग सिर्फ़ एक दर्शक वर्ग तक पहुंचने का रास्ता नहीं, बल्कि भोजपुरी सिनेमा के आर्थिक और तकनीकी पुनर्जीवन की कुंजी है।
​🚨 कड़वी सच्चाई: कुर्सी मिली, सिनेमा भूला
​यह सबसे बड़ी विडंबना है कि भोजपुरी भाषी जनता के जिन प्रतिनिधियों को इंडस्ट्री ने स्टार बनाया, वे आज सत्ता और संसाधन के शिखर पर हैं। बावजूद इसके, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे मूल क्षेत्रों में भी भोजपुरी सिनेमा के लिए मल्टीप्लेक्स के दरवाज़े बंद हैं।
​इंडस्ट्री के सूत्र सवाल उठा रहे हैं: "जब मराठी और गुजराती सिनेमा के लिए यह अनिवार्यता संभव है, तो भोजपुरी के राजनीतिक दिग्गज अपनी ही भाषा के सिनेमा के लिए क्यों 'मौन व्रत' साधे हुए हैं? क्या कुर्सी मिलते ही अपनी जड़ों से मुंह मोड़ लिया गया है?"
​💰 आर्थिक गुलामी और सिंगल स्क्रीन की बेड़ियाँ
​जब तक भोजपुरी फिल्में सिर्फ़ सिंगल स्क्रीन थियेटरों तक सीमित रहेंगी, तब तक यह इंडस्ट्री आर्थिक गुलामी से बाहर नहीं निकल सकती। मल्टीप्लेक्स केवल बेहतर एसी और कुर्सियाँ नहीं देते, वे हैं— बेहतर टिकट दर, सम्मानजनक प्रस्तुति और नए, प्रशिक्षित तकनीशियनों व कहानीकारों के लिए आकर्षण का केंद्र।
​नजीर शेख ने साफ़ चेतावनी दी है: "मल्टीप्लेक्स में एंट्री ही नए निवेशक लाएगी, गुणवत्ता सुधारेगी और हमारे सिनेमा को राष्ट्रीय पटल पर सम्मान दिलाएगी।"
​यह मांग अब सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि भोजपुरी सिनेमा के अस्तित्व का सवाल बन चुकी है। इंडस्ट्री से जुड़े कलाकारों, निर्माताओं और राजनीति में बैठे प्रतिनिधियों को आज ही एकजुट होकर ठोस पहल करनी होगी, वरना आने वाली पीढ़ियां इस अनदेखी का हिसाब मांगेंगी।

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