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जितेन्द्र जायसवाल नागदा जिला उज्जैन मध्य प्रदेश डेढ़ सौ साल से हमें जगाता वंदे मातरम्

राष्ट्रगीत के 150 वर्ष पूर्ण होने का यह अवसर आत्म-निरीक्षण का क्षण भी हैं। क्या हम उस भाव को जी पा रहे हैं, जिसके लिए असंख्य देशभक्तों ने प्राणों की आहुति दी ?

योगी आदित्यनाथ

मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश

वंदे मातरम्... यह केवल उच्चरित शब्द नहीं है, यह भारतीय आत्मा का वह शाश्वत निनाद है, जो डेढ़ शताब्दी से अनवरत गुंजित हो रहा है। यह मात्र गीत नहीं, राष्ट्र-जागरण का वह दिव्य महामंत्र है, जिसने पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारत को आत्मबोध का प्रकाश दिया, निराशा के घोर तमस में अस्मिता की ज्योति प्रज्वलित की, संघर्ष को संबल और स्वाधीनता को स्वरूप प्रदान किया।

इस गीत में न तो सत्ता का मोह है, न किसी जाति, संप्रदाय या प्रांत का आग्रह। यह गीत संपूर्ण भारत की सामूहिक चेतना का प्रतीक है। वह चेतना, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और अध्यात्म से निर्मित हुई है। इस गीत ने हमें यह सिखाया कि राष्ट्र केवल एक भौगोलिक सीमा नहीं, बल्किएक जीवंत, संवेदनशील, मातृस्वरूपा सत्ता है, जिसके प्रति हमारी निष्ठा, श्रद्धा और समर्पण ही हमारी असली पहचान है। यह गीत भारतीय जीवन-दर्शन का प्रतीक है, जहां राष्ट्रभक्ति केवल राजनीतिक विचार नहीं, बल्कि भक्ति, साधना और सेवा का रूप ले लेती है।

वंदे मातरम् की रचना अपने आप में एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण था। जब ब्रिटिश शासन भारत की धार्मिक सांस्कृतिक चेतना को कुचलने का प्रयास कर रहा था, तब बंकिमचंद्र ने अपने उपन्यास आनंद मठ में इस गीत को स्थान दिया। आनंद मठ के संन्यासी यह गीत गाते थे। यह 'संन्यासी विद्रोह' की प्रेरणा बना, जिसने ब्रिटिश सत्ता के सामने भारतीय आत्मबल का पहला प्रतिरोध खड़ा किया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने सन् 1875 में जब इस गीत की रचना की, तब उन्होंने केवल काव्य नहीं लिखा, उन्होंने राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाने का संकल्प किया। सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम् की पंक्ति ने भारतीय मानस में चेतना का संचार किया। इस एक पंक्ति में भारत की समृद्धि, सौंदर्य और शक्ति एक साथ मूर्तिमान हो उठे।

सन् 1905 के बंग-भंग आंदोलन के समय वंदे मातरम् एक गीत नहीं रहा। इसकी गूंज विद्यालयों, सभाओं, जुलूसों और हर उस मार्ग पर सुनाई देती थी, जहां स्वतंत्रता का स्वप्न जीवित था। फांसी के तख्ते पर चढ़ते क्रांतिकारियों के होंठों पर अंतिम उच्चारण भी 'वंदे मातरम्' ही था। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जब इसे अपने स्वर में गाया, तो यह केवल गीत नहीं रहा, यह एक आध्यात्मिक अनुभूति बन गया। वंदे मातरम् ने धर्म और देशप्रेम को एक सूत्र में बांधा, जिससे भक्ति और देशभक्ति एक ही धारा बनकर बहने लगीं। इसी भावधारा ने लाखों भारतीयों को उस स्वाधीनता यज्ञ में आहुति बन जाने की प्रेरणा दी, जिसकी लौ से भारत ने स्वतंत्रता का सवेरा देखा।

स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने भी इस गीत को राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक माना। यही कारण है कि वंदे मातरम् आज भी प्रत्येक भारतीय के लिए श्रद्धा और गर्व का विषय है। यह गीत कालातीत है, क्योंकि इसमें न तो किसी युग का बंधन है, न किसी प्रदेश की सीमा।
इसमें उस भारतमाता की दिव्यता झलकती है, जो केवल भूभाग नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति व सनातन चेतना का जीवंत रूप है। आज जब हम वंदे मातरम् की रचना के 150 वर्ष पूर्ण होने का पावन अवसर मना रहे हैं, यह केवल स्मरण का नहीं, बल्कि आत्मावलोकन का क्षण भी है। क्या हम उस भाव को जी पा रहे हैं, जिसके लिए असंख्य देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी ? क्या हम अपने जीवन में वही समर्पण, वही अनुशासन और वही मातृभूमि-भक्ति स्थापित कर पाए हैं?

दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी वंदे मातरम् पर प्रश्नचिह्न लगाने का साहस करते हैं। कभी इसे सांप्रदायिक कहकर सीमित करने का प्रयास किया जाता है, तो कभी इसे किसी संप्रदाय विशेष से जोड़कर उसकी सार्वभौमिकता को संकुचित किया जाता है। यह प्रवृत्ति न केवल अज्ञान और ऐतिहासिक विस्मृति की उपज है, बल्कि राष्ट्रभावना व सांस्कृतिक एकता के प्रति गहरे अनादर का प्रतीक भी है।

वंदे मातरम् किसी मत, पंथ या संप्रदाय का
गीत नाहीं, यह संपूर्ण भारत की आत्मा का स्वर है। इसमें उस मातृभूमि की वंदना है, जिसकी कृपा से हम सब अस्तित्व पाते हैं। यही कारण है कि 24 जनवरी, 1950 को भारत की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी। यह निर्णय केवल एक औपचारिक घोषणा नहीं था, इस सत्य का प्रतिपादन भी था कि वंदे मातरम् भारतीय राष्ट्र की एकात्म चेतना, श्रद्धा व स्वाभिमान का अमर प्रतीक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में, 'वंदे मातरम् के गान में करोड़ों देशवासियों ने हमेशा राष्ट्रप्रेम के अपार उफान को महसूस किया है। हमारी पीढ़ियों ने बंदे मातरम् में भारत के एक जीवंत और भव्य स्वरूप के दर्शन किए हैं।'

आज भारत आत्मनिर्भरता और विकास की नई यात्रा पर अग्रसर है। इस यात्रा की मूल प्रेरणा वही है, जो डेढ़ शताब्दी पूर्व बंकिमचंद्र ने दी थी, मातृभूमि पर गर्व करने की भावना और कर्म को सेवा में बदलने की भावना। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जब देश 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' के मंत्र के साथ आगे बढ़ रहा है, तब वंदे मातरम् उस एकता की भावना को और गहराई देता है। यह गीत हमें स्मरण कराता है कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में है, उसके लोक-जीवन, भाषाओं और संस्कृतियों के समन्वय में है।

वंदे मातरम् का अर्थ केवल मातृभूमि को प्रणाम करना नहीं, बल्कि यह वचन देना है कि हम उसकी रक्षा करेंगे, उसे समृद्ध और गौरवान्वित बनाएंगे। जब कोई किसान अपनी भूमि को उपजाऊ बनाता है, सैनिक सीमा पर डटा रहता है, शिक्षक अपने विद्यार्थियों में संस्कार बोता है और युवा नवाचार से देश का नाम रोशन करता है, तब 'वंदे मातरम्' अपने सार्थक रूप में जीवित रहता है। आज की युवा पीढ़ी को इस गीत के मूल भाव को अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा।

तकनीको युग की तेज रफ्तार में भी यदि उसके हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम और कर्तव्य का संकल्प बना रहे, तभी यह गौत अमर रहेगा।

आज जब हम इस गीत की 150 वर्षों की यात्रा को नमन करते हैं, तो यह केवल एक साहित्यिक उपलब्धि का सम्मान नहीं, बल्कि उस राष्ट्र-चेतना के स्रोत का अभिनंदन है, जिसने भारत को भारत बनाया। यह गीत हमें सिखाता है कि राष्ट्रप्रेम कोई उत्सव नहीं, यह नित्य आराधना है।

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