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महाराणा प्रताप, पुण्यतिथि आज महाराणा प्रताप का नाम भारत के इतिहास में उनकी बहादुरी के कारण अमर है। वह अकेले राजपूत

महाराणा प्रताप, पुण्यतिथि आज


महाराणा प्रताप का नाम भारत के इतिहास में उनकी बहादुरी के कारण अमर है। वह अकेले राजपूत राजा थे...
महाराणा प्रताप का नाम भारत के इतिहास में उनकी बहादुरी के कारण अमर है। वह अकेले राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। उनका जन्म आज ही के दिन यानी 9 मई, 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ किले में हुआ था। आइये आज उनसे जुड़ीं खास बातें जानते हैं..
जीवन परिचय
उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह था और माता महारानी जयवंता बाई थीं। अपने परिवार की वह सबसे बड़ी संतान थे। उनके बचपन का नाम कीका था। बचपन से ही महाराणा प्रताप बहादुर और दृढ़ निश्चयी थे। सामान्य शिक्षा से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी। उनको धन-दौलत की नहीं बल्कि मान-सम्मान की ज्यादा परवाह थी। उनके बारे में मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है, 'इस दुनिया में सभी चीज खत्म होने वाली है। धन-दौलत खत्म हो जाएंगे लेकिन महान इंसान के गुण हमेशा जिंदा रहेंगे। प्रताप ने धन-दौलत को छोड़ दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया। हिंद के सभी राजकुमारों में अकेले उन्होंने अपना सम्मान कायम रखा'

राज्याभिषेक
महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह अपनी मृत्यु से पहले बेटे जगमल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था जो उनकी सबसे छोटी पत्नी से थे। वह प्रताप सिंह से छोटे थे। जब पिता ने छोटे भाई को राजा बना दिया तो अपने छोटे भाई के लिए प्रताप सिंह मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे लेकिन सरदारों के आग्रह पर रुक गए। मेवाड़ के सभी सरदार राजा उदय सिंह के फैसले से सहमत नहीं थे। सरदार और आम लोगों की इच्छा का सम्मान करते हुए प्रताप सिंह मेवाड़ का शासन संभालने के लिए तैयार हो गए। 1 मार्च, 1573 को वह सिंहासन पर बैठे।
अकबर से टकराव और हल्दीघाटी का युद्ध
महाराणा प्रताप के समय दिल्ली पर मुगल शासक अकबर का राज था। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुगल बादशाह की गुलामी पसंद नहीं थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि मानसिंह के भड़काने से अकबर ने खुद मानसिंह और सलीम (जहांगीर) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी।अकबर ने मेवाड़ को पूरी तरह से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के बीच गोगुडा के नजदीक अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के बीच युद्ध हुआ। इस लड़ाई को हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से जाना जाता है। 'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से संधि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयां लड़ते रहे।

महाराणा प्रताप और चेतक
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता 'चेतक की वीरता' में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ की गई है। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊंचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।

कभी नहीं झुके महाराणा
अकबर इस बीच बिहार बंगाल और गुजरात में विद्रोह दबाने में लगा था जिससे मेवाड़ पर मुगलों का दबाव कम हो गया. दिवेर की लड़ाई के बाद महाराणा प्रताप ने उदयपुर समेत 36 अहम जगहों पर अपना अधिकार कर लिया और राणा का मेवाड़ के उसी हिस्से पर कब्जा हो गया जब उनके सिंहासन पर विराजने के समय था. इसके बाद महाराणा ने मेवाड़ के उत्थान के लिए काम किया, लेकिन 11 साल बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई. 
                                   अंजनी मिश्रा

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