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मध्यमवर्गीय परिवार आत्मनिर्भर

ऐसा लग रहा है कि  देश में सिर्फ मजदूर ही रहते हैं....बाकी क्या भटे भटियारे हैं? कुछ और भी मध्य वर्ग है जो करो ना में श्रम करते करते पिस रहा है
अब जरा उसके बारे में सोचिये..
जिसने लाखों रुपये का कर्ज लेकर प्राइवेट कालेज से इंजीनियरिंग  किया था ..और अभी कम्पनी में 5 से 8 हजार की नौकरी पाया था ( मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी से भी कम ), लेकिन मजबूरीवश अमीरों की तरह रहता था ।
( बचत शून्य है ) 
जिसने अभी अभी नयी नयी वकालत शुरू की थी ..दो -चार साल तक वैसे भी कोई केस नहीं मिलता ! दो -चार साल के बाद ..चार पाच हजार रुपये महीना मिलना शुरू होता है , लेकिन मजबूरीवश वो भी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं कर पाता,और चार छ: साल के बाद.. जब थोड़ा कमाई बढ़ती है, दस पंद्रह हजार होती हैं तो भी..लोन वोन लेकर ..कार वार खरीदने की मजबूरी आ जाती है । ( बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो होती है। ) अब कार की किस्त भी तो भरना है ?
 - उसके बारे में भी सोचिये..जो सेल्स मैन , एरिया मैनेजर का तमगा लिये घूमता था। बंदे को भले ही आठ  हज़ार   रुपए महीना मिले, लेकिन कभी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं किया ।
 उनके बारे में भी सोचिये जो बीमा ऐजेंट , सेल्स एजेंट बना मुस्कुराते हुए घूमते थे। आप कार की एजेंसी पहुंचे नहीं कि कार के लोन दिलाने से ले कर कार की डिलीवरी दिलाने तक के लिये मुस्कुराते हुए , साफ सुथरे कपड़े में , आपके सामने हाजिर ।
बदले में कोई कुछ हजार रुपये ! लेकिन अपनी गरीबी का रोना नहीं रोता है।
आत्म सम्मान के साथ रहता है।
मैंने संघर्ष करते वकील , इंजीनियर , पत्रकार , ऐजेंट,सेल्समेन,छोटे- मंझोले दुकान वाले, क्लर्क, बाबू, स्कूली  माटसाब, धोबी, सलून वाले, आदि देखे हैं ..अंदर भले ही चड़ढी- बनियान फटी हो,मगर  अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं करते हैं । 
और इनके पास न तो मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है , न ही जनधन का खाता , यहाँ तक कि गैस की सब्सिडी भी छोड़ चुके हैं ! ऊपर से मोटर साइकिल की किस्त , या कार की किस्त ब्याज सहित देना है ।
बेटी- बेटा की एक माह की फीस बिना स्कूल भेजे ही इतनी देना है, जितने में दो लोगों का परिवार आराम से एक महीने खा सकता है , 
परंतु गरीबी का प्रदर्शन न करने की उसकी आदत ने उसे सरकारी स्कूल से लेकर सरकारी अस्पताल तक से दूर कर दिया है। 
ऐसे ही टाईपिस्ट , स्टेनो , रिसेप्सनिस्ट ,ऑफिस बॉय जैसे लोगो का वर्ग है।
अब ऐसा वर्ग क्या करे ?वो 
तो...फेसबुक पर बैठ कर अपना दर्द भी नहीं लिख सकता है  (  बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो है। ) 
तो मजदूर की त्रासदी का विषय मुकाम पा गया है..मजदूरो की पीढ़ा का नाम देकर ही अपनी पीढ़ा व्यक्त कर रहा है ? 
( क्या पता है हकीकत आपको ? IAS , PSC का सपना लेकर रात- रात भर जाग कर पढ़ने वाला छात्र तो बहुत पहले ही  दिल्ली व इंदौर से पैदल निकल लिया था..अपनी पहचान छिपाते हुये ..मजदूरों के वेश में ? 
क्यूं वो अपनी गरीबी व मजबूरी की दुकान नहीं सजा पाता ! 
काश! कि देश का मध्यम वर्ग ऐसा कर पाता?
आपका चिंतक/विश्लेषक: मध्यम वर्गीय परिवार।

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