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पैराओलम्पिक खिलाडी सोना जीतकर भी चमक से दूर..

पैराओलम्मेंपिक में भारत लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहा है, फिर भी हमारे भीतर उत्साह नहीं, जबकि किसी भी तरह की शारीरिक मानसिक विकलांगता से संघर्ष कर के उपलब्धियाँ हासिल करने की motivational stories ख़ूब सुनाई जाती हैं, लोग  सलाम करते हैं. मगर अब जब वो विश्व स्तर पर वाक़ई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल कर रहे हैं तब हमारी प्रतिक्रिया इतनी सुस्त क्यों है।

. Paralympics में भारत  5 गोल्ड, 8 रजत और 6 कांस्य लेकर 34 वे नम्बर पर है, यह भारत के ओलिम्पिक प्रदर्शन से बेहतर है. यह इसलिये भी क़ाबिले तारीफ़ है कि ये उस समाज से आए हैं जहाँ सामान्य लोगों से ही जाति धर्म और जेंडर के नाम पर अति भेदभाव किया जाता है, जहाँ विकलांगता या तो मज़ाक की वस्तु है या घोर सहानुभूति की, मगर इससे इतर उनकी ज़रूरतों और हक़ पर बात नही होती। न उसकी जरूरत ही समझी जाती है और जहाँ विकलांगता का मज़ाक ख़ुद देश के प्रधानमंत्री ने दिव्यांग कहकर उड़ाया हो। ऐसे regressive समाज की मानसिकता, व्यवस्था की दुश्वारियाँ और शारीरिक अक्षमता को पार करके हमारे खिलाड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर रहे हैं और हम सामान्य लोगों में, मीडिया, और सोशल मीडिया पर उत्साह तक नहीं. क्या यह बात ख़ुद हमारे बारे में बहुत कुछ नही कह जाती? क्या कारण है कि हम इन खिलाड़ियों की सफलता पर उस तरह उत्साहित नही जैसे ओलंपिक के खिलाड़ियों के लिये थे?

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