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जब किसान कानून स्थगित है फिर क्यों हो रहा किसान आंदोलन के नाम पर बवाल

केंद्र सरकार ने पिछले अगस्त - सितम्बर में 3 किसान कानून पारित किये। जिसमे किसानो को अपनी फसल कृषि उपज मंडी के अलावा आम बाजार में बेचने के लिए भी एक रास्ता दिया। साथ ही साथ कृषि उपज से जुड़े उद्योगों को भी कुछ रियायते दी। सरकार की मंशा इतनी थी की किसान कृषि उत्पाद  विक्रय के लिए सिर्फ कृषि उपज मंडी पर निर्भर न रहे। 

कृषि उपज मंडी में हर किसान अपनी फसल नहीं बेच पा रहा। वह बिचौलियों की तूती बोलती है। जिसके चलते किसानो को फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं दिए जाते। इससे आम किसानो को पर्याप्त उपज मूल्य नहीं मिलता। इसी लिए सरकार ने वैकल्पिक रास्ता देते हुए जो किसान अपनी फसल आम बाजार में बेचना चाहे वह बेच सकते है। साथ ही साथ वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा में भी बेच सकते है। 

हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य को क़ानूनी तौर पर लागु करवाने के लिए कुछ किसान संघठन ने नवंबर से आंदोलन शुरू किया। उनका कहना है की सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर संसद में विधेयक लाये और जो भी इससे कम मूल्य पर उपज खरीदे उसे सजा हो। शुरुआत में सभी लोगो ने इसका समर्थन भी किया। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी गया और वहा सरकार को आदेश दिया गया की जब तक सभी पक्षों की बाते न सुनी जाए और बिच का कोई रास्ता न निकले तब तक यह कानून लागु नहीं होगा। इसके चलते सरकार ने यह कानून डेढ़ साल तक निरस्त किया है। 

अब बात आती है की जब यह कानून लागु ही नहीं है तो किस बात का आंदोलन?
 
दूसरा कि कानून में लिखा है कि राज्य सरकारे अपने विवेक से कृषि संबधित कानून में बदलाव कर सकते है। अगर वह चाहे तो यह कानून अपना सकते है या अपने राज्य के हिसाब से कुछ और कर सकते है जिससे किसानो फायदा हो। कृषि विषय को भारत के संविधान में राज्यों की सूचि में शामिल किया गया है। 

एक और तथ्य यह भी है की कृषि समृद्ध राज्य जैसे हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे जगह पर ही इसका विरोध हो रहा है। इसकी वजह यह है की यहाँ सबसे ज्यादा बिचौलिए कृषि मंडी में कार्यरत है। अगर यह कानून लागु होता है तो इससे सीधा किसान और खरीददार ही रहेंगे और बिचौलिए का कोई काम नहीं रहेगा। वैसे भी जैसे आगे कहा हर किसान मंडी में जाकर अपनी फसल नहीं बेच पाता। ऐसे किसान या तो आम बाजार में जा कर बेचते है या किसी कंपनी को अपनी उपज बेच देते है। 

सरकार और किसान संघठनो के बिच 20 दौर की बातचीत हो चुकी है पर सब बेनतीजा रही। किसान संघठन इस कानून को किसान विरोधी बता रहे है जबकि सरकार किसान के हित में। सरकार ने कहा है की जिन मुद्दों पर आपत्ति है  उन मुद्दों पर विस्तृत चर्चा कर के  आगे का कोई रास्ता निकाला जायेगा। पर संघठन निरस्ती पर ही अड़ा है। 
हलाकि अब इस आंदोलन ने राजनीती का रास्ता पकड़ा है। किसान की बात अब भुला दिया गया है और विपक्षी दल अपनी राजनीती चमकाने के लिए इस आंदोलन को अपना हथियार बना रहे है। वह भी जानते है की बिचौलियों के हटने से किसानो को ही फायदा है। साथ ही साथ किसानो को एक और विकल्प भी मिल रहा है। फिर भी इसका विरोध हो रहा है। 

इसके पीछे 2022 में आ रहे पंजाब, उत्तर प्रदेश और गुजरात के विधान सभा चुनाव है। जितना हो सके उतना वर्तमान सरकार को किसान विरोधी बताकर सत्ता को हासिल करना इनका लक्ष्य है। जब यही विपक्ष सत्ता में था तब स्वामीनाथन  समिति ने सुझाव दिए थे उसे उन्होंने अनदेखा किया। जब इस पर कोई काम कर रहा है वह उनको राज नहीं आ रहा। 

राकेश टिकैत, हनन मोल्लाह, योगेंद्र यादव यह सब राजनीती के सक्रीय किरदार है। यह लोग आंदोलन को जैसे तैसे चालू रख कर राजनीती में व्यस्त है। आम किसानो की बात हो ही नहीं रही अब। बस आंदोलन की आड़ में अपना एजेंडा चला रहे है। मुझे आश्चर्य हो रहा है की बिचौलियों के हटने से, किसान अपनी मर्जी से अपनी फसल किसी को भी बेचे उससे इनको क्या दिक्क्त है? क्यों लोगो को भ्रमित कर यह लोग आंदोलन कर रहे है?

सरकार के साथ बातचीत में अड़ियल रुख अपना कर अपनी ही बात सही है उसे दोहराना देश के अन्य किसानो के साथ धोखा ही है। अगर राजनीती ही करनी है तो चुनाव लड़े पर इन कथित किसान नेताओ को भी पता है की उनका वजूद क्या है। इस लिए ही यह सब अपने तरीके से मस्त है आंदोलन की राजनीती में। जो की अब असामाजिक कृत्यों का केंद्र बन गया है। 
पहले सिर्फ धान के ही समर्थन मूल्य तय किये जाते थे लेकिन अब फल, सब्जी और अन्य तिलहन के भी दाम तय किये जायेगे। इससे दूसरे किसानो को भी फायदा है। 

लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात रखने का अधिकार है पर शर्त यह है की उससे किसी और व्यक्ति और देश का नुकसान न हो। 

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