चलो चले जिन्दगी...
जिन्दगी, हालातों से हताश न हो। चलते रहना ही तेरा नाम है। रूकना और थकना तेरे नसीब में बेजां बात होगी। उतार-चढा़व तो तेरे सहज रास्ते है। डगमगा जाना तो स्वाभाविक-सा भर है।खट्टे-मीठे अनुभवों को कांख में दबाये, चली ही जा रही हो,अथक...बगैर रूके।
काँपते , डिगते कदमों से जब चला,गिरा,फिर उठा...जिन्दगी तूने हाथ थामा और कहा--" जिस दिन गिरने का डर और डिगने की परवाह से बेपरवाह हो जाओगे..चलना सीख लोगे।"
मैंने उसी दिन से गाँठ बाँध ली। मेरे चलने और दौड़ने ; कदमताल या सहज चाल की सारी गति प्रगति के फैसले बेफिक्री को सौंप चरैवेति-चरैवेति का अनुगामी हो गया।
जिन्दगी !! पहला पाठ काम आ रहा है।
हर दौर की भोर होने पर तेरी थपथपी याद आई। जीवन की निराश और असहाय विवशताओं में "हिम्मते मर्दा--मददे खुदा" का विश्वास भर ,आकांक्षाओं का अनन्त आकाश दिया। विवशता को विशिष्टता से रूपांतरित करना सिखाया। हताशाएँ, निराशाएँ मानसिक दुर्बलता ही तो है,जो आत्मबल के विश्वास से रूपांतरित होती है आशा और उत्साह में।
हालातों में हालत दुरस्त रखने का पाठ काम आ रहा है।
गले लगाती सफलता, झूमती प्रसिद्धि, इठलाती मंजिल, झिलमिलाती यश-गाथा, बेलगाम अमीरी, इंगितों पर नाचती राजनीति, मुस्कराते पुरस्कारों और हाथ थामते प्रभावी मित्रों की मदहोशी की बेहोशी में वह झिड़की नहीं भूला। मुझे तेजी से बढ़ते देख कहा था --" यह सब समय की छाया-माया है, अपनों में रहो,अपने में नहीं..।"
वह दिन है और आज का दिन... समझ गया कि भौतिक लब्धता काम की नहीं। पीछे की पंक्ति में आनन्द से बैठना, सादगी और सहजता को मित्र बनाकर उन्हीं के संग जीना, प्रकृति के रंगों में रहना सीखा।
परम सत्ता के प्रति समर्पण का पाठ काम आ रहा है।
अखिल ब्रमाण्ड में मेरा ज्ञान, नाम,चाह, प्रभाव, अंह, दम्भ और सम्पन्नता का दायरा कितना है,यह ईमानदारी से समझता हूँ और निर्मलता से स्वीकार भी करता हूँ। असीम फैले महासागर में बून्द का वजूद क्या है..?? इसलिए मुस्कान और संतोष के साथ जिन्दगी की अंगुली पकडे़ पीछे-पीछे,धीमे-धीमें चलता हूँ। सारे पाठ इसी के है। जो पढे़गा वह इसकी मंशा को समझ पाएगा। जिन्दगी असम्भावनाओं में सम्भावना, नैराश्य में आशाभरी उम्मीद, विफलता की खेह में सफलता की वृष्टि कर मानव-मन की आन्तरिक सृष्टि को उन्नत और उर्वरक बनाती है। यही कदम की डग का मग है।
तो, चलो...,चले जिन्दगी..!!
वहाँ, जहाँ बीतना नहीं, जीने का बुलावा है। सीखने का नहीं, होने की पुकार है। संकीर्ण नहीं, संकीर्तन का नाद निनाद है। भाग्य से परे कोई वैराग्य स्वागत को आतुर है। मलिनता वहाँ निर्मलता को पल्लवित करता है। राजनीति से इतर कोई नियति निर्धारित है। समृद्धि से दूरतर कोई अभिवृद्धि पथ बता रही है।
वहीं ले चल जिन्दगी...