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नष्ट होता जा रहा स्वविवेक
तब ना तो इतनी भीड़ थी, ना ही हर हाथ में मोबाइल, ना हर घर में टीवी और ना ही लोगों के मन में ईर्ष्या और लालच।
ये तस्वीर तब की है जब गाँव में किसी एक के पास रेडीयो हुआ करता था और सारा गाँव उसी रेडीयो से समाचार सुनता था।
उसके बाद एक दौर ये भी आया जब एक ही टीवी से सारा गाँव रामायण और महाभारत देखता था।
अब हर हाथ में मोबाइल है और हर घर में टीवी, रेडीयो तो अब गुज़रे ज़माने की बात हो गयी, दिखता ही नहीं।
गाँव में किसी एक के पास लैंडलाइन फ़ोन हुआ करता था और गाँव के सब रिश्तेदारों का फ़ोन उसपे आया करता था।
वैज्ञानिक विकास और वैश्वीकरण ने हर हाथ में मोबाइल दे कर कहीं न कहीं एक ही कमरे में रह रहे दो लोगों में दूरी तो बढ़ा ही दी है।
कहते है की विज्ञान का सही इस्तेमाल ना हो तो ये अभिशाप साबित होता है।
गाँवों में सामंजस्य, प्रेम और सहयोग की भावना हुआ करती थी पर अब धीरे धीरे वो भी ख़त्म होती जा रही है, लोग एक-दूसरे से ईर्ष्यावश अपना ही विकास अवरुद्ध कर रहे हैं।
यूधिस्ठिर का त्याग कर लोग दुर्योधन को अपना रहे हैं। दुर्योधन यूधिस्ठिर को पाँच गाँव भी नहीं देगा, इस बात को समाज सहज ही अपनाता जा रहा है।
सही-ग़लत का अंतर, दूरदृष्टि, न्याय ये सब काल्पनिक होते जा रहे हैं। स्व-विवेक नष्ट हो चुका है और शकुनियों की सलाह पर निर्भरता बढ़ गयी है।
स्व-विवेक से अगर वर्तमान जीवन का दृष्टिकोण ना बदला गया तो समाज की बुनियाद ढह जाएगी और आपसी प्रेम समाप्त हो जाएगा।
शशीधर चौबे
भदोही (उत्तर प्रदेश)