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मीठी वाणी सभी को प्यारी लगती है !


हमें यदि कोई कड़ी जबान कहता है, तीखी वाणी बोलता है, निन्दा करता है या गाली-शाप देता है, तो हमें कितना बुरा लगता है. इसीलिये किसी को भी न कभी गाली, अभिशाप दो, न निन्दा करो, न रूखी तीखी जबान बोलो !

*स्मरण रहे रूखी तीखी जबान यदि मन में हित को भावना रखकर बोली जाय तो यद्यपि वह वाणी का दोष है, तथापि बड़ा अपराध नहीं है. बड़ा अपराध तो है मन से किसी का बुरा चाहना, बुरा सोचना, बुरा करने की योजना बनाना और बुरा होते देखकर प्रसन्न होना. मुँह से बहुत मीठा भी बोले, पर मनमें ये दोष भरे हों तो यह बहुत बड़ा अपराध है; इससे सदा बचना श्रेयस्कर है. कभी किसी का न बुरा करो, न बुरा चाहो !*

याद रखें -यदि तुम्हें कोई गाली दे, रूखी या रोष भरी जबान कहे, मिथ्या निन्दा करे, प्राणों को जलाने वाली विष भरी जबान कहे, तो उसे सह लो. तुम्हारा बुरा तो होगा ही नहीं, परम कल्याण होगा. जो वाणी के बाणों से दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, वह मनुष्यों में महादरिद्र है, क्योंकि उसकी वाणी में दारिद्रय भरा है. इतना ही नहीं, वह अपना अनिष्ट अपने हाथों कर रहा है. उसके पुण्यों का नाश और पाप का संग्रह हो रहा है, जिसका बुरा फल उसे भोगना पड़ेगा. उसे भूला हुआ मानकर उस पर दया करो !

याद रहे जो पुरुष दूसरों की कही कड़वी, रूखी वाणी सुनकर दुखी नहीं होता, वरं गाली देने वाले का कल्याण मनाता है, उसके पुण्य पुष्ट होते हैं और वह भविष्य में महान् सुख का भागी होता है; अतः दुःख न मानकर उसका कल्याण करो !

इस समय कपट, छल, चोरी, हिंसा, असत्य का व्यवहार करने वाला भी पूर्वकर्मवश धन-मान प्राप्त कर सकता है; पर यह निश्चय ही उसके वर्तमान पापों का फल नहीं है. इनका फल तो उसे भयानक रूप में, जब ये कर्म फल देने लगेंगे, तब मिलेगा. इसलिये कभी भी बुरे आचरणोंसे धन-मानकी इच्छां मत करो !

यह सत्य है कि पवित्र जीवन, सदाचार-यही जीवनका सबसे बड़‌कर मूल्यवान् धन है. सांसारिक धन तो प्रारब्धवश आता-जाता रहता है. जो सदाचार से भ्रष्ट होकर अपवित्र जीवन हो गया, वही वास्तव में बड़ा दरिद्र है. सदाचारी तो सदा ही धनी है !

दरअसल जो अपने में बिना हुए गुणों को दिखाता है, दूसरों से अपने में बिना हुए गुण सुनना चाहता है और सुनकर उन्हें मूक रहकर भी प्रकारान्तरसे स्वीकार करता है, उसमें सद्‌गुणोंका आगमन, विकास और निवास बन्द हो जाता है. बुराइयों और दोषों को रहने के लिये तथा प्रचुरमात्रामें बढ़ने के लिये स्थान तथा सुयोग मिल जाते हैं, जो मनुष्य के भयानक पतन में कारण होते हैं. अतएव अपने सच्चे गुणों को भी छिपाओ, उनको भी स्वीकार न करो और मिथ्या गुष्ण तो कभी किसी से कहो ही मत, दूसरा बताता हो तो उसको समझाकर उसका भ्रम दूर कर दो. अच्छा मनुष्य तो अपने सच्चे गुण सुनकर ही लजाता है, अपने सच्चे गुणों का प्रकाश करने में अत्यन्त सकुचाता है. फिर अपने मिध्या गुण और मिथ्या प्रशंसा तो वह सहन ही कैसे कर सकता है. अतएव मिथ्या गुण कभी मत सुनो, कभी मत मानों अपनी मिथ्या प्रशंसा और मिथ्या गुण-श्रवणको विष या जलती हुई अग्नि के समान समझकर उनसे दूर भाग जाओ. उनका सदा दृढ़तासे त्याग करो !


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