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मसरूफ़ है इतने की शब्दों में क्या लफ्जों में कहने का वक़्त नही है अभी मेरे पास, मगर मसरूफियत कि इस बयां बाजी दौरान एक आवाज ऐसी जहाँ सब जरूरी काम

मसरूफ़ है इतने की शब्दों में क्या लफ्जों में कहने का वक़्त नही है अभी मेरे पास, मगर मसरूफियत कि इस बयां बाजी दौरान एक आवाज ऐसी जहाँ सब जरूरी काम से निजात चाहिए मुझे, हर बिखरी पड़ी चीज़ खूबसूरत लगती मुझे, सामने बैठा शक़्स गैरजरूरी लगता मुझे, बदल जाते है मतलब किसी खास वार्तालाप के....
गुम जाते है भाव उनके प्रश्नों के सही सटीक जवाबों के, उपेक्षित से महसूस करते है संवाद जिनके प्रतिउत्तर अनमने अनसुने भाव से दिए जा रही हूं, और आंखे बोलने लगती है अब वो कही और देख रही है,, कान कही किसी और को सुन रहे है, बस अब जहां अबतक हम थे वहां से हम कही जा चुके है ...आंखों के सामने बैठी दुनिया अजनबी है, उनके प्रश्नों पर दिए गए जवाब बस संवाद को खत्म करने की पूर्ति मात्र है.....

अब कहने को तो कुछ शेष नही है मेरे पास....
हम तो बस बैठे है वहाँ, पर मौजूद नही है , हम तो बैठे बैठे भी कही किसी आवाज के पुकारने जाने पर उनके पीछे पीछे चले गए है ...और वहां बैठे हुए लोग मेरा नाम लेकर बार बार मुझे बुलाते है या ढूंढते है, अभी अभी हुए उन अनजाने लोगो से मुझे मेरा नाम बुलाना अब अच्छा नही लग रहा ।
लेखिका नीलम नीलू ओझा

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