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मुझे मत मारो, मेरी माँ घर में अकेली है…” यह कोई नाटकीय संवाद नहीं था, बल्कि उड़ीसा के संभलपुर में भीड़ के सामने गिड़गिड़ाते उस नौजवान की आख़िरी पुकार

“मुझे मत मारो, मेरी माँ घर में अकेली है…”
यह कोई नाटकीय संवाद नहीं था, बल्कि उड़ीसा के संभलपुर में भीड़ के सामने गिड़गिड़ाते उस नौजवान की आख़िरी पुकार थी, जिसे किसी ने सुनना ज़रूरी नहीं समझा। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले का रहने वाला ज्वेल शेख (जुएल राना) रोज़गार की तलाश में परदेस आया था। वह कोई अपराधी नहीं था, कोई घुसपैठिया नहीं था बल्कि वह सिर्फ़ एक ग़रीब मज़दूर था, जो अपनी बूढ़ी माँ के लिए दो वक्त की रोटी कमाना चाहता था। लेकिन दिसंबर 2025 की उस रात इंसानियत हार गई और भीड़ जीत गई।

ज्वेल अकेला नहीं था। उसके साथ उसके दो साथी — अकिर शेख और पलाश शेख भी थे। तीनों रोज़ की तरह काम से लौट रहे थे। रास्ते में बीड़ी मांगने को लेकर मामूली तकरार हुई, फिर पहचान पत्र दिखाने की बात आई और यहीं से शक, नफ़रत और अफ़वाह का ज़हर फैल गया। देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई। ज्वेल हाथ जोड़ता रहा, अपनी माँ का हवाला देता रहा, लेकिन लाठियाँ चलती रहीं। ज्वेल की जान चली गई, जबकि अकिर और पलाश गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझते रहे। वे ज़िंदा हैं, लेकिन उस रात का डर और अपमान शायद उन्हें कभी चैन से जीने नहीं देगा।

परिवार और साथियों का आरोप है कि ज्वेल को “बांग्लादेशी” समझकर निशाना बनाया गया, सिर्फ़ इसलिए कि वह बंगाली भाषा बोलता था। अगर यह सच है, तो यह हत्या नहीं, बल्कि पहचान के आधार पर किया गया अपराध है। पुलिस भले ही इसे आपसी झगड़ा बताए और कुछ लोगों को गिरफ़्तार करे, लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा डरावनी है यह उस मानसिकता का परिणाम है, जहाँ ग़रीबी, भाषा और शक किसी की जान लेने के लिए काफ़ी हो जाते हैं।

इस पूरे मामले में सबसे चौंकाने वाली और तकलीफ़देह बात है मीडिया की चुप्पी। आज तक देश के बड़े मीडिया मंचों पर आरोपियों के नाम सामने नहीं आए। न अख़बारों के पहले पन्ने काले हुए, न न्यूज़ चैनलों के प्राइम टाइम में बहस छिड़ी। न चीख़ते एंकर दिखे, न “देश को खतरा” बताने वाली हेडलाइन्स बनीं। सवाल उठता है—क्यों?

कड़वी सच्चाई यह है कि अगर इस घटना में आरोपियों के नाम उर्दू या मुस्लिम पहचान वाले होते, तो तस्वीर बिल्कुल अलग होती।
पहला पन्ना यही खबर होती,
प्राइम टाइम पर घंटों बहस चलती,
पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता,
सड़कों पर प्रदर्शन होते,
और हिंदू संगठनों के विरोध की तस्वीरें हर चैनल पर चलतीं।

लेकिन यहाँ आरोपी बहुसंख्यक समाज से आते हैं, इसलिए नाम छुपा दिए गए, घटना को “मामूली विवाद” कहकर दबा दिया गया। क्या इंसाफ़ भी धर्म देखकर तय होता है? क्या किसी की मौत की अहमियत उसके नाम और पहचान से तय की जाएगी?

ज्वेल शेख की माँ अब हर सुबह एक ऐसे बेटे का इंतज़ार करती है, जो कभी लौटकर नहीं आएगा। अकिर शेख और पलाश शेख ज़िंदा हैं, लेकिन अंदर से टूट चुके हैं। और हमारा समाज? वह अब भी चुप है। यह चुप्पी, यह चयनात्मक आक्रोश, यह मीडिया की पक्षधरता—ज्वेल की हत्या से भी बड़ा अपराध है, क्योंकि यह आने वाली और हत्याओं का रास्ता तैयार करती है।

यह लेख सिर्फ़ एक घटना का बयान नहीं है, यह एक चेतावनी है। अगर आज हमने सवाल नहीं उठाए, अगर आज हमने नाम पूछने की हिम्मत नहीं की, तो कल किसी और ज्वेल की चीख़ भी यूँ ही भीड़ और ख़ामोशी में दबा दी जाएगी।

पत्रकार आमिर महफूज खान
Aima media reporter

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