logo

​सियासत के शोर में टूटती अरावली: पक्ष-विपक्ष की लड़ाई या पहाड़ों की विदाई?

​दिनांक: 27 दिसंबर 2025
स्थान: अजमेर/जयपुर
​आज सुबह के अखबारों की सुर्खियां राजस्थान की राजनीति का एक कड़वा सच बयां कर रही हैं। एक तरफ सूबे के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा हैं, जो पूर्ववर्ती सरकारों के पाप गिना रहे हैं, तो दूसरी तरफ सचिन पायलट हैं, जो सरकार की "मजबूरियों" पर सवाल उठा रहे हैं। लेकिन इन दोनों बयानों के बीच, जो सबसे जरूरी सवाल था, वह कहीं दब गया है— क्या राजनीति से पहाड़ बच पाएंगे?
​आरोप-प्रत्यारोप का खेल
​अखबार की कतरनें गवाह हैं कि अरावली का मुद्दा अब 'पर्यावरण' से ज्यादा 'पॉलिटिकल स्कोरिंग' का जरिया बन गया है।
​सत्ता पक्ष (भाजपा) का तर्क: मुख्यमंत्री जी का कहना है कि अरावली की परिभाषा 2002-03 और 2009-10 में कांग्रेस ने बदली। उनका तर्क है कि अरावली सुरक्षित है और विपक्ष केवल अफवाह फैला रहा है।
विपक्ष (कांग्रेस/NSUI) का तर्क: सचिन पायलट और NSUI सड़कों पर हैं। उनका कहना है कि '100 मीटर की नई परिभाषा' अरावली के विनाश का परमिट है और सरकार किसी अज्ञात "मजबूरी" के तहत पहाड़ों को उद्योगपतियों के हवाले कर रही है।
​जनता की अदालत से दोनों पक्षों को जवाब
​जब हम इन बयानों की परतें खोलते हैं, तो दोनों ही पक्ष कटघरे में खड़े नजर आते हैं।
​1. सरकार से सवाल: इतिहास कोसने से क्या वर्तमान सुधर जाएगा?
माननीय मुख्यमंत्री जी, आपका यह तर्क सही हो सकता है कि पिछली सरकारों ने परिभाषाएं बदलीं। लेकिन आज 'कलम' और 'ताकत' आपके हाथ में है। अगर पिछली सरकार ने गलती की थी, तो आप उसे सुधारने के बजाय उसी राह पर क्यों चल रहे हैं? "100 मीटर की ऊंचाई" को पहाड़ मानने का पैमाना अगर विनाशकारी है, तो उसे रद्द करने से आपको किसने रोका है?
जनता यह जानना चाहती है कि 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' का नारा अरावली के खनन माफियाओं पर कब लागू होगा? इतिहास की आड़ लेकर वर्तमान के फैसलों को सही नहीं ठहराया जा सकता।
​2. विपक्ष से सवाल: सत्ता जाते ही 'पर्यावरण प्रेम' क्यों जागता है?
सचिन पायलट जी का यह पूछना जायज है कि "ऐसी क्या मजबूरी है?" लेकिन जनता को यह भी याद है कि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब भी अरावली का सीना छलनी हो रहा था। आज जो "अरावली बचाओ मार्च" निकल रहा है, वह सराहनीय है, लेकिन यह सवाल भी उठता है कि यह चिंता 5 साल पहले फाइलों में क्यों नहीं दिखी? क्या पर्यावरण की परिभाषा विपक्ष की कुर्सी पर बैठते ही बदल जाती है?
​असली मुद्दा: 100 मीटर की परिभाषा का खेल
​इस पूरे विवाद की जड़ वह तकनीकी पेंच है जिसे '100 मीटर की परिभाषा' कहा जा रहा है। सरकार (चाहे कोई भी हो) आंकड़ों की बाजीगरी करके यह सिद्ध करने में जुटी है कि "जिसे हम काट रहे हैं, वह पहाड़ है ही नहीं।"
यह कुदरत के साथ क्रूर मजाक है। पहाड़ कागज पर बनी लकीरों या मीटर के पैमानों से नहीं, बल्कि उस पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) से पहचाने जाते हैं जो उत्तर भारत को रेगिस्तान बनने से रोके हुए है।

परिणाम : हमें भाषण नहीं, श्वेत पत्र चाहिए
​अरावली राजस्थान के लिए केवल एक पर्वत श्रृंखला नहीं, बल्कि जीवन रेखा है। अगर यह दीवार हटी, तो रेगिस्तान दिल्ली और जयपुर के दरवाजे खटखटाएगा।
​आज जरूरत इस बात की है कि दोनों पार्टियां 'ब्लेम गेम' (Blame Game) बंद करें। अगर दोनों ही खुद को अरावली का हितैषी बताते हैं, तो एक 'संयुक्त श्वेत पत्र' (Joint White Paper) जारी करें। जनता को बताएं कि पिछले 20 सालों में—चाहे भाजपा हो या कांग्रेस—किसने कितने पट्टे दिए, कितने पहाड़ समतल हुए और किस नेता के संरक्षण में क्रशर चलते रहे।
​जब तक यह नहीं होता, तब तक यह मान लेना चाहिए कि यह लड़ाई अरावली को बचाने की नहीं, बल्कि इस मुद्दे को भुनाने की है। अरावली चुप है, लेकिन उसका विनाश आने वाली पीढ़ियों को बहुत शोर मचाकर जवाब देगा।

19
1325 views