
संविधान की आड़ में वैचारिक अराजकता: क्या सरकार समाज को टकराव की ओर धकेल रही है?
✍️ डॉ. महेश प्रसाद मिश्रा, भोपाल की कलम से
विशेष संपादकीय:
भारत आज एक विचित्र विरोधाभास से गुजर रहा है। संविधान का नाम लेकर सामाजिक सौहार्द को तोड़ा जा रहा है, धर्मग्रंथों का अपमान खुलेआम हो रहा है और सरकारें—चाहे केंद्र की हों या राज्यों की—अक्सर मौन दर्शक बनी दिखाई देती हैं।
संविधान, जो मूलतः सामाजिक समरसता, न्याय और समानता का माध्यम था, आज कुछ समूहों द्वारा राजनीतिक पहचान और वैचारिक टकराव का औजार बनता जा रहा है। प्रश्न यह नहीं कि संविधान का सम्मान होना चाहिए या नहीं—प्रश्न यह है कि क्या संविधान का प्रयोग समाज को जोड़ने के लिए हो रहा है या बाँटने के लिए?
मूल संविधान में आरक्षण का स्वरूप: तथ्य क्या कहते हैं?
भारत के मूल संविधान (1950) में आरक्षण की परिकल्पना:
• केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए थी
• उद्देश्य था:
o ऐतिहासिक वंचना से उबरने हेतु अस्थायी संरक्षण
• राजनीतिक आरक्षण (लोकसभा/विधानसभा) के लिए समय-सीमा:
o 10 वर्ष (अनुच्छेद 334)
यह कोई स्थायी अधिकार नहीं, बल्कि एक संक्रमणकालीन व्यवस्था थी।
👉 OBC आरक्षण न तो मूल संविधान का हिस्सा था,
👉 न ही 1950 में इसका कोई उल्लेख था।
यह बाद में नीति-निर्णयों और संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से जोड़ा गया। संविधान: एक व्यक्ति नहीं, सामूहिक मंथन का परिणाम यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय संविधान:
• लगभग 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में बना
• करीब 293 सदस्यों के विचार, बहस और सहमति से तैयार हुआ, संविधान किसी एक व्यक्ति की निजी रचना नहीं, बल्कि:
👉 पूरी संविधान सभा का सामूहिक बौद्धिक श्रम है।
किसी एक नाम से इसे पूर्णतः जोड़ देना, अनजाने में ही सही, उन सभी योगदानकर्ताओं के महत्व को कम करता है।
200+ संशोधन और बदला हुआ स्वरूप
आज लागू संविधान:
• 100 से अधिक संशोधनों से गुजर चुका है
• कई मूल अवधारणाएँ समय के साथ बदली गईं
यह परिवर्तन लोकतंत्र की प्रक्रिया का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन सवाल यह है— क्या हर बदलाव सामाजिक संतुलन को बेहतर बना रहा है?
सरकार से सीधा सवाल:
• क्या धर्मग्रंथों के सार्वजनिक अपमान पर चुप्पी न्यायसंगत है?
• क्या वैचारिक उकसावे से समाज को बाँटना लोकतांत्रिक मूल्य है?
• क्या सरकार की जिम्मेदारी केवल शासन करना है या सामाजिक शांति बनाए रखना भी?
यदि एक पक्ष लगातार उकसावे की राजनीति करे और दूसरे पक्ष से केवल सहनशीलता की अपेक्षा की जाए,
तो यह संतुलन नहीं, बल्कि दबाव कहलाता है।
यह लेख न टकराव की वकालत करता है, न किसी ग्रंथ या व्यक्ति के अपमान की। यह केवल सरकार और नीति-निर्माताओं से आग्रह करता है कि: संविधान को संघर्ष का औजार नहीं, सह-अस्तित्व का सेतु बनने दें। क्योंकि इतिहास गवाह है— जब राज्य समय रहते संतुलन नहीं साधता, तो समाज स्वयं रास्ता खोजने लगता है। और वह रास्ता हमेशा शांतिपूर्ण हो—यह ज़रूरी नहीं।
जैसे आज ये तथाकथित अम्बेडकरवाद के जिहादी सनातन संस्कृति का अपमान कर रहे हैं और सनातन के धर्मग्रंथों को जला रहे हैं अगर ठीक ऐसे ही दूसरा पक्ष करने लगे अम्बेडकर के नाम से प्रचलित किताबों को जलने लगे तो देश में क्या हालत बनेगें इस पर सरकारों को विचार करना होगा I आज जो भी संविधान लागू है वो अपने मूल स्वरुप में नहीं है तो कोई भी कह सकता है की संविधान का मूल स्वरुप लागू करो वरना कोई भी देश का वाशी मानाने के लिए बाध्य नहीं है I मध्य प्रदेश का ही उदहारण लें तो ओरिजिनल संविधान के हिसाब से जो जातीय आरक्षण में शामिल थी आज उसके विपरीत आरक्षण दिया जा रहा है तो सामान्य वर्ग के लोग ऐसे संविधान को क्यों माने. ये चिंतन का बिषय है अन्यथा वो दिन दूर नहीं की पुरे देश में अराजकता का माहौल बन जाये जो की सरकारें सम्हाल भी न पाएं .........