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झंझारपुर:, कमला बांध किनारा बसे जीवन

मै कमला बांध किनारा बसे आवादी से मिलने गया, वहां के लोगो से बात करने से अनुभव हुआ कमला नदी के तटबंध (बांध) के किनारे बसी आबादी न केवल प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है, बल्कि विकास की मुख्यधारा से भी अक्सर कटी रहती है।कमला नदी, जिसे मिथिलांचल की जीवनरेखा कहा जाता है, अपने साथ उपजाऊ मिट्टी तो लाती है, लेकिन तटबंधों के किनारे बसे हजारों परिवारों के लिए यह हर साल एक नई चुनौती भी लेकर आती है। नाव पर सवार होकर जब हम इन इलाकों का जायजा लेते हैं, तो शांत दिखते पानी के पीछे छिपी आवादी की बेबसी साफ नजर आती है।
​बांध के किनारे बसे लोगों के लिए मानसून का मतलब खुशी नहीं, बल्कि खौफ होता है। जब नदी का जलस्तर बढ़ता है, तो तटबंधों के टूटने या पानी के रिसाव का डर बना रहता है। कई परिवार ऐसे हैं जो दशकों से 'खानाबदोश' का जीवन जी रहे हैं—बाढ़ आई तो बांध पर शरण ली, और पानी घटा तो फिर से कीचड़ भरे घरों में लौट गए।
​तटबंध के किनारे बसे गांवों में अक्सर बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी देखी जाती है:
​शिक्षा: आवागमन के साधनों के अभाव में बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। बरसात के दिनों में तो स्कूल पूरी तरह टापू बन जाते हैं।
​स्वास्थ्य: आपातकालीन स्थिति में अस्पताल पहुंचना एक बड़ी चुनौती है। एम्बुलेंस का इन इलाकों तक पहुंचना नामुमकिन होता है, जिससे मरीज को नाव या खटोली के भरोसे रहना पड़ता है।
​शुद्ध पेयजल: बाढ़ के दौरान चापाकल डूब जाते हैं, जिससे दूषित पानी पीने के कारण महामारी और चर्म रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
​खेती यहाँ के लोगों का मुख्य आधार है, लेकिन नदी की अनिश्चितता के कारण फसल की कोई गारंटी नहीं होती। बालू के जमाव के कारण खेत बंजर हो रहे हैं। ऐसे में यहाँ के युवाओं के पास पलायन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
​स्थानीय लोगों का मानना है कि चुनाव के समय तो नेताओं के दौरे होते हैं, लेकिन बांध की मजबूती और पुनर्वास के स्थायी समाधान पर काम बहुत धीमी गति से होता है।

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