
न्याय का मंदिर और नैतिकता की मर्यादा: व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम सार्वजनिक उत्तरदायित्व
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका को 'अंतिम शरणस्थली' माना जाता है। जब समाज के अन्य स्तंभ डगमगाते हैं, तो आम आदमी एक उम्मीद के साथ 'न्याय के मंदिर' की ओर देखता है। लेकिन जब इस मंदिर के पुरोहित (न्यायाधीश) ही आचरण की शुचिता खोने लगें, तो विश्वास की नींव हिलना स्वाभाविक है। बिहार के तीन न्यायाधीशों की सेवा बर्खास्तगी का मामला इसी नैतिक पतन और न्यायिक अनुशासन के कड़े संदेश का प्रतीक है।
1. आचरण की शुचिता:-पद की गरिमा का प्रश्न
न्यायाधीश का पद केवल एक नौकरी नहीं, बल्कि एक 'ट्रस्ट' है। समस्तीपुर और अररिया जैसे जिलों में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे न्यायाधीशों का नेपाल के एक होटल में आपत्तिजनक स्थिति में पाया जाना, केवल उनका निजी मामला नहीं रह जाता।
2. सार्वजनिक विश्वास:-समाज न्यायाधीशों को कानून के रक्षक के रूप में देखता है। यदि रक्षक ही नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करेंगे, तो न्याय की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगना अनिवार्य है।
3.भ्रष्टाचार और नैतिकता:-जैसा कि आपने उल्लेख किया, अनैतिक आचरण अक्सर भ्रष्टाचार का द्वार खोलता है। जो व्यक्ति चारित्रिक रूप से समझौतावादी है, उसके द्वारा वित्तीय प्रलोभन में आकर फैसले बदलने की आशंका भी बढ़ जाती है।
# व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम पेशेवर मर्यादा:
लेख का दूसरा पक्ष 'निजता के अधिकार' और 'व्यक्तिगत जीवन' की बात करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन और निजता का अधिकार देता है। हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता (Navtej Singh Johar case) और व्यभिचार (Adultery - Joseph Shine case) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर यह स्थापित किया है कि राज्य को किसी के शयनकक्ष में झांकने का अधिकार नहीं है।
परंतु, यहाँ एक बारीक रेखा है:
1. उच्च मानदंड:-एक सामान्य नागरिक और एक न्यायाधीश के लिए 'आचरण संहिता' अलग-अलग होती है। न्यायाधीशों से समाज 'सीजर की पत्नी' की तरह निष्कलंक होने की अपेक्षा करता है।
2. स्थान और प्रभाव:-यदि कोई कृत्य सार्वजनिक प्रतिष्ठा को धूमिल करता है या पद के प्रभाव का उपयोग अनैतिक कार्यों के लिए किया जाता है, तो वह निजी नहीं रह जाता। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि न्यायाधीशों का सार्वजनिक जीवन में व्यवहार ऐसा होना चाहिए जो न्यायपालिका की छवि को सुदृढ़ करे, न कि उसे कमजोर।
3.न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियां
न्यायपालिका में पारदर्शिता की कमी और 'कॉलेजियम प्रणाली' पर अक्सर सवाल उठते हैं। जब शीर्ष पर बैठे लोगों के आचरण में गिरावट आती है, तो यह प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
जवाबदेही:-बिहार के जजों की बर्खास्तगी यह दर्शाती है कि न्यायपालिका स्वयं के भीतर सुधार (In-house procedure) के लिए कठोर कदम उठा सकती है।
संतुलन की आवश्यकता:-व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ यह कतई नहीं है कि लोक सेवक अपने पद की गरिमा को ताक पर रख दें। न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मेरे समझ से न्याय के मंदिर में 'माय लॉर्ड' कहलाने वाले व्यक्ति से केवल कानून का ज्ञान ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के चरित्र की भी अपेक्षा की जाती है। व्यक्तिगत जीवन और व्यावसायिक जीवन के बीच की दीवार इतनी पतली नहीं होनी चाहिए कि एक का पतन दूसरे के अस्तित्व को ही समाप्त कर दे। बिहार के इन न्यायाधीशों पर की गई कार्रवाई यह संदेश देती है कि न्याय की कुर्सी पर बैठने का अधिकार केवल उसे ही है, जिसका आचरण न्याय की तरह ही स्पष्ट और पवित्र हो।
"न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।" और यह 'दिखना' न्यायाधीश के व्यक्तित्व और आचरण से ही शुरू होता है।
मनीष सिंह
शाहपुर पटोरी
@ManishSingh_PT