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एक नए भारत की नई वैज्ञानिक गाथा।

"जब रेडिएशन 'शांतिदूत' बन जाए और पहाड़ अपराधी !"
मित्रों, दिल थाम कर बैठिए! भारत में विज्ञान और तर्क ने आत्महत्या कर ली है और उसकी लाश पर 'प्राइम टाइम' का शो चल रहा है।
हम अब उस दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ समस्याओं का हल नहीं निकाला जाता, बल्कि 'बलि का बकरा' (Scapegoat) ढूंढा जाता है। स्क्रिप्ट राइटर ने कमाल का खेल रचा है—पहले किसान विलेन था, अब पहाड़ मुजरिम है, और भविष्य में रेडिएशन हमारा 'दोस्त' होगा।
आइए, इस "मास्टरस्ट्रोक" को तीन चरणों में समझते हैं:
पहली बात: अरावली का 'एनकाउंटर' (भूगोल गया तेल लेने)
सालों तक हमें बताया गया कि "पराली जलाने वाला किसान" देश का सबसे बड़ा दुश्मन है। लेकिन जैसे ही शादियों का सीजन आया और इंडस्ट्रीज का धुआं बढ़ा, तो स्टूडियो में बैठे "जज साहब" ने नया फरमान सुना दिया।
तर्क: "दिल्ली एक प्याला है और अरावली उसकी दीवार। धुआं बाहर जाना चाहता है, लेकिन अरावली उसे रोक लेती है। इसलिए कसूर धुएं का नहीं, पहाड़ का है!"
इसका मतलब (Decoding):
साहब का इशारा साफ़ है—रास्ते से अरावली को हटा दो!
* फायदा: खनन माफिया (Mining Mafia) की दीवाली, बिल्डर्स की ईद।
* नुकसान: जनता का क्या है? वो तो बिना फेफड़े के भी जी लेगी, उसे तो बस "विकास" चाहिए।
यानी, अब हम कुदरत को अपनी सुविधानुसार कस्टमाइज़ करेंगे। कल को ये कह देंगे— "गर्मी बहुत है, सूर्य को बुझा दिया जाए।"

दूसरी बात: 'शांति' वाला न्यूक्लियर बिल (मौत की नो-गारंटी)
इधर पहाड़ को गिराने की भूमिका बन रही है, उधर संसद में 'शांति' स्थापित हो गई है। न्यूक्लियर बिल पास हो गया है, जिसे पढ़कर यमराज भी कन्फ्यूज हैं कि उनका काम तो सरकार ने ही संभाल लिया।
इस बिल की खूबसूरती देखिए:
* हम न्यूक्लियर प्लांट लगाएंगे (बिजली यानी 'शांति' के लिए)।
* विदेशी कंपनी माल बेचेगी, मुनाफा कमाएगी।
* ट्विस्ट: अगर कल को रिएक्टर फट गया, कोई 'चरनोबिल' जैसा हादसा हो गया, और हजारों लोग मारे गए, तो बनाने वाली कंपनी (Supplier) जिम्मेदार नहीं होगी!
इसे कहते हैं जिम्मेवारी कुछ नहीं फायदा पूरा(Zero Liability, 100% Profit) मॉडल।
अगर प्लांट फटा, तो सरकार कहेगी— "यह अशांति नहीं है मित्रों, यह तो मोक्ष की प्राप्ति है। और वैसे भी, आपने मुआवजा मांगकर 'माहौल' खराब क्यों किया?"
तीसरी बात: 'All is well' (मालिक खुश, पेमेंट फुल)
इन दोनों घटनाओं को जोड़कर देखिए, तस्वीर साफ़ हो जाएगी।
* पर्यावरण का सर्वनाश: अरावली हटाओ ताकि कॉरपोरेट को ज़मीन मिले। प्रदूषण का बहाना? "पहाड़ जिम्मेदार है।"
* सुरक्षा का नाश: न्यूक्लियर डील करो ताकि कॉरपोरेट को धंधा मिले। हादसे का डर? "बिल पास है, कोई जिम्मेदार नहीं।"
मीडिया का रोल:
शाम को एंकर आएगा और ''आज की बात'' में चीखकर कहेगा:
"धिक्कार है आप पर! आप देश की तरक्की के बीच में आ रहे हैं। अगर अरावली नहीं हटेगी तो हवा कैसे बहेगी? और अगर न्यूक्लियर रेडिएशन से चार लोग मर भी गए, तो क्या आप देश के लिए इतनी 'कुर्बानी' नहीं दे सकते? क्या सीमा पर जवान नहीं खड़े हैं?"
अब पूरी बात का सर है कि आदमी की हालत,
आम आदमी की स्थिति उस 'प्रेशर कुकर' जैसी हो गई है, जिसकी सीटी में (आवाज़) तो बज रही है, लेकिन गैस (महंगाई और प्रदूषण) बंद करने वाला कोई नहीं।
* सांस लो तो अरावली का नाम लेकर खांसते रहो।
* सांस रुक जाए तो न्यूक्लियर बिल का नाम लेकर चुपचाप लेट जाओ।
नैतिक शिक्षा:
इस देश में अब सब कुछ 'शांतिपूर्ण' है। अगर आपके फेफड़े जवाब दे जाएं या शरीर में रेडिएशन फैल जाए, तो कृपया शोर न मचाएं। इससे 'मालिक' की नींद और 'सिस्टम' का पेमेंट—दोनों डिस्टर्ब होते हैं!
तथागत: इस व्यंग्य में किसी भी जीवित व्यक्ति या पहाड़ को चोट पहुँचाने का इरादा नहीं है, क्योंकि चोट तो वैसे भी जनता को ही लगनी है।

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