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तब भारत सोने की चिड़िया था। विश्व गुरु था। धन, साधन, भोग—सब उपलब्ध थे।। फिर भी ऋषि-मुनि ने सत्ता नहीं ली, धन नहीं जोड़ा, सेना नहीं रखी।

जितनी तुम्हारी आत्मा गिरवी है, उतनी ही तुम्हारी गर्दन झुकी हुई है।

जिसने आत्मा बेच दी—उसे पाखंड के आगे झुकना ही पड़ता है।

पाखंडी गुरु, धर्म-व्यापारी, बाबा—
उनके पास कोई दिव्यता नहीं है,
उनके पास केवल कला है—
तुम्हारी आत्मा खरीदने की कला।

तुम भीतर से मुर्दे हो,
इसलिए तुम्हें बाहर ईश्वर दिखाई देता है।

अंधे हो—
इसलिए किसी व्यक्ति को भगवान मान लेते हो।

किसी मनुष्य को अधिक आत्मा नहीं मिली।
आत्मा सबकी समान है।

जिस दिन यह समझ आ जाए—
उस दिन कोई गुरु सिंहासन पर नहीं बैठेगा।

धर्म कोई नहीं जानता।

सत्य कोई नहीं जानता।

जो जान लेता है—
वह तुम्हें आदेश नहीं देता,
वह तुम्हें गले लगाता है।

मित्र बनता है।

प्रेम देता है।
गरीब, पागल, अपमानित—सबके साथ खड़ा होता है।

वहाँ— विशेष भोजन नहीं,
विशेष गाड़ी नहीं,
विशेष सुरक्षा नहीं होती।
क्योंकि जो आत्मवान है, वह गुलाम नहीं बनाता।

रामायण देखो।

गीता देखो।
चाणक्य को देखो।

ऋषि, मुनि, संत—
राजमहलों में नहीं रहते।

वे जंगल में, कुटिया में रहते हैं।

राजा चाहते तो
महल, धन, सुरक्षा, सुविधा—सब दे सकते थे।

फिर भी गुरुकुल जंगल में क्यों थे?
धनवान शिष्य
भिक्षा क्यों मांगते थे?
क्या ऋषि भिखारी थे?
नहीं।
तब भारत सोने की चिड़िया था।

विश्व गुरु था।
धन, साधन, भोग—सब उपलब्ध थे।।

फिर भी ऋषि-मुनि ने
सत्ता नहीं ली,
धन नहीं जोड़ा,
सेना नहीं रखी।

क्यों?
क्योंकि वे जानते थे—
धन और आत्मा एक साथ नहीं बैठते।

सत्ता और सत्य एक साथ नहीं रहते।

आज के गुरु
धर्म भी रखते हैं,
धन भी रखते हैं,
राजनीति भी रखते हैं,
और तुम्हारी आत्मा भी।

और तुम—
कुत्ते की तरह
उनके दरबार में
पूँछ हिलाते हो।
फूल चढ़ाते हो।
सेवा के नाम पर सत्ता बढ़ाते हो।
भीड़ बनते हो।

भीड़—
जिसकी आत्मा बिक चुकी होती है।

उन्होंने केवल धन नहीं लूटा,
उन्होंने तुम्हारी आत्मा छीन ली है।

और तुम उसे
उपलब्धि समझ रहे हो।

सत्य कठोर नहीं होता—
सत्य निर्भीक होता है।
और निर्भीक वही हो सकता है
जिसकी आत्मा अब भी उसके अपने पास हो।

बाकी सब—
धर्म नहीं,
साधना नहीं,
भक्ति नहीं—
केवल गुलामी है।

🆅🅴🅳🅰🅽🆃🅰 2.0 🅰 🅽🅴🆆 🅻🅸🅶🅷🆃 🅵🅾🆁 🆃🅷🅴 🅷🆄🅼🅰🅽 🆂🅿🅸🆁🅸🆃 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

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