
धर्म को नष्ट करने की नहीं,
धर्म को विवेक के अधीन पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।
Vedanta 2.0
धर्म और शोषण: एक संरचनात्मक अध्ययन
(Religion and Exploitation: A Structural Analysis)
सार (Abstract)
यह निबंध धर्म को किसी विशेष समुदाय, परंपरा या आस्था के रूप में नहीं,
बल्कि एक सामाजिक–मानसिक संरचना के रूप में अध्ययन करता है।
उद्देश्य यह समझना है कि धर्म किस बिंदु पर मानव-मुक्ति का साधन रहता है और किस बिंदु पर वही धर्म शोषण, विभाजन और सत्ता का औज़ार बन जाता है।
अध्ययन का केंद्रीय प्रश्न यह है कि शोषण बाहरी आक्रमणों या व्यक्तियों से अधिक, धर्म की आंतरिक विकृति से कैसे उत्पन्न होता है।
1. भूमिका (Introduction)
इतिहास में अधिकांश शोषण को हम बाहरी शक्तियों, आक्रमणकारियों या किसी विशेष समूह के साथ जोड़ते रहे हैं। परंतु यह दृष्टि अधूरी है।
यह निबंध यह मानकर चलता है कि—
कोई भी समाज तब तक शोषित नहीं होता,
जब तक वह भीतर से शोषण के लिए तैयार न हो।
इस संदर्भ में धर्म एक केंद्रीय भूमिका निभाता है, क्योंकि धर्म ही वह तंत्र है जो व्यक्ति के विवेक, नैतिकता और स्वीकार्य–अस्वीकार्य की सीमाएँ तय करता है।
2. धर्म की मूल अवधारणा (Concept of Religion)
धर्म की मूल भूमिका तीन स्तरों पर रही है—
नैतिक अनुशासन
सामाजिक समन्वय
आत्मिक बोध
धर्म का उद्देश्य मनुष्य को अधिक मानवीय बनाना था, न कि उसे किसी पहचान में सीमित करना।
परंतु जैसे ही धर्म ने विवेक के स्थान पर आज्ञापालन को प्राथमिकता दी, वह एक संरचनात्मक सत्ता में बदल गया।
3. धर्म से अधर्म की संरचना (From Religion to Structural Adharma)
धर्म का अधर्म में रूपांतरण अचानक नहीं होता। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है—
3.1 विवेक का निष्कासन
जब प्रश्न पूछना पाप बना दिया जाता है।
3.2 भय का संस्थानीकरण
पाप, दंड, नरक, सामाजिक बहिष्कार—
ये सब नियंत्रण के औज़ार बन जाते हैं।
3.3 श्रेष्ठता का निर्माण
एक वर्ग स्वयं को पवित्र, श्रेष्ठ या चुना हुआ घोषित करता है।
यहीं से धर्म, आत्मिक मार्ग न रहकर सत्ता–संरचना बन जाता है।
4. वर्ण, जाति और शोषण की संरचना (Caste, Division and Exploitation)
कार्य-विभाजन किसी भी समाज की आवश्यकता है, परंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब—
कार्य को जन्म से बाँध दिया जाए
सेवा को हीनता बना दिया जाए
और श्रेष्ठता को दैवी आदेश घोषित किया जाए
यहाँ शोषण केवल आर्थिक नहीं रहता, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक हो जाता है।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि—
शोषण केवल ऊपर से नहीं होता,
वह नीचे की स्वीकृति से स्थायी बनता है।
5. ऐतिहासिक आक्रमण: कारण या परिणाम?
(Mughal and British Period as Case Study)
मुगल और अंग्रेज़ आक्रमणों को सामान्यतः बाहरी कारण माना जाता है।
परंतु संरचनात्मक दृष्टि से वे—
आंतरिक विभाजन
धार्मिक अंधविश्वास
और विवेकहीन धर्म-व्यवस्था
के परिणाम थे।
एक संगठित, विवेकशील और समानतावादी समाज को केवल बाहरी शक्ति से लंबे समय तक नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
6. अहिंसा, धर्म और निष्क्रियता (Misinterpretation of Non-Violence)
अहिंसा का मूल अर्थ अन्याय के सामने निष्क्रिय होना नहीं था।
परंतु जब अहिंसा को—
कर्म से पलायन
और चमत्कार-आधारित आशा
में बदल दिया गया, तब वह शोषण की सहयोगी बन गई।
यहाँ धर्म नैतिक बल नहीं, नैतिक निष्क्रियता पैदा करता है।
7. आधुनिक संदर्भ: धर्म और सत्ता (Religion and Modern Power Structures)
आधुनिक युग में धर्म—
राजनीतिक पहचान
सामाजिक ध्रुवीकरण
और आर्थिक नियंत्रण
का माध्यम बन चुका है।
यह दर्शाता है कि समस्या धर्म की नहीं,
धर्म की संरचना पर नियंत्रण करने वाली मानसिकता की है।
8. निष्कर्ष (Conclusion)
यह अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि—
शोषण का मूल कारण बाहरी शक्ति नहीं, आंतरिक अधर्म है
धर्म तब तक मुक्तिदायी है, जब तक वह विवेक के अधीन है
जैसे ही विवेक धर्म के अधीन होता है, शोषण अवश्यंभावी हो जाता है
अतः वास्तविक संघर्ष धर्म बनाम अधर्म का नहीं, बल्कि—
विवेक बनाम अंध-आस्था का है।
9. अंतिम टिप्पणी (Final Remark)
यदि भविष्य में शोषण-मुक्त समाज की कल्पना करनी है,
तो धर्म को नष्ट करने की नहीं,
धर्म को विवेक के अधीन पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।
यही इस अध्ययन का केंद्रीय प्रस्ताव है।
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