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अरावली का और गहरा दर्द:जब हजारों साल पुराना पहाड कराहता है और सत्ता चुप रहती है

मैं अरावली हूं... आज से नहीं, कल से भी नहीं, हजारों वर्षों से। जब न शहर थे, न सीमाएं, न सरकारें और न ही फाइलों का बोझ, तब भी मैं थी। मैंने इंसानी सभ्यता को जन्म लेते देखा है। मैंने देखा है वह क्षण जब इंसान ने पहली बार पत्थर से आग निकाली, मेरी दरारों में पानी खोजा और मेरी मिट्टी में पहली फसल बोई। आज वही इंसान मेरे ही पत्थरों से मुझे खत्म करने पर तुला है।
​करीब 15 हजार साल पहले, जब इंसान डरता हुआ जंगलों में भटकता था, मैंने उसे छाया दी। मेरे जंगलों ने उसकी भूख मिटाई, मेरी चट्टानों ने उसकी रक्षा की और मेरे भीतर सहेजे पानी ने उसे जिंदा रखा। मैं चुप रही, क्योंकि मुझे लगा इंसान सीख रहा है। लेकिन आज वही इंसान सत्ता के ऊंचे गलियारों में बैठकर मुझे समझा रहा है कि विकास क्या होता है।

​आज मेरी छाती पर लोहे के दांत हैं। मशीनें चल रही हैं। जंगल सरकारी फाइलों में अनुपयोगी भूमि कहलाने लगे हैं। मेरे पत्थरों की कीमत तय है, लेकिन मेरी उपयोगिता पर सवाल खडे किए जा रहे हैं। क्या मेरा कसूर यही है कि मैं बोल नहीं सकती? कि मैं वोट नहीं देती? कि मैं चुनाव नहीं लडती? अगर मैं चिल्ला सकती तो शायद विधानसभाएं जाग जातीं। अगर मैं अदालत पहुंच सकती तो शायद फैसले बदल जाते। लेकिन पहाड सिर्फ चुपचाप टूटता है।

​सवाल किसी एक सरकार या दल से नहीं है, सवाल पूरी शासन व्यवस्था से है। किस विकास मॉडल में पहाड काटना अनिवार्य हो गया? कौन सा विकास ऐसा है जो जल स्रोतों की रीढ तोड दे? कौन सा इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसा है जो आने वाली पीढियों को प्यासा छोड दे?

​क्या सरकार की मेजों तक यह रिपोर्ट नहीं पहुंचती कि दिल्ली एनसीआर, हरियाणा और राजस्थान का भूजल अरावली पर निर्भर है? क्या यह नहीं बताया गया कि अरावली थार के रेगिस्तान के विस्तार के सामने आखिरी दीवार है? सरकार ने यह कैसे और किस आधार पर तय कर दिया कि सिर्फ 100 मीटर से ऊंचे हिस्से ही 'पहाड़' माने जाएंगे और उससे नीचे के हिस्सों को नहीं? यह 100 मीटर की सीमा किस वैज्ञानिक आधार पर खींची गई है कि इससे नीचे के बाकी सब हिस्सों को तोड़ दिया जाएगा? फिर अरावली को तोडने का आदेश किसने दिया? किस मंत्रालय ने यह तय किया कि यह पहाड विकास में बाधा है? किस वैज्ञानिक रिपोर्ट, किस पर्यावरणीय अध्ययन और किस जन सुनवाई के आधार पर यह निर्णय लिया गया? क्या स्थानीय लोग, किसान और पर्यावरण विशेषज्ञ इस प्रक्रिया का हिस्सा थे?
​फाइलों में शब्द बदले गए। पहाड को 'लैंड यूज' कहा गया, जंगल को 'अनुपयोगी भूमि' लिखा गया और फिर खनन की अनुमति दे दी गई। जहां कभी पक्षियों की आवाजें सुबह का अर्थ होती थीं, आज वहां विस्फोट दिन की पहचान हैं। जहां बारिश मेरी गोद में बैठकर जमीन के भीतर उतरती थी, आज वह फिसलकर बह जाती है, क्योंकि ठहरने को कुछ बचा ही नहीं।

​अरावली सिर्फ दिल्ली या हरियाणा की नहीं है, यह राजस्थान की जीवनरेखा है। यही वह प्राकृतिक ढाल है जो थार के रेगिस्तान को पूरे राज्य को निगलने से रोकती है। अगर अरावली टूटी तो हैंडपंप ही नहीं, इंसानों की आंखों के आंसू भी सूख जाएंगे। खेती और पशुपालन दम तोड देंगे। गांव उजडेंगे, पलायन बढेगा और सरकार शहरों की बढती भीड से जूझती रह जाएगी।
​सरकार का काम सिर्फ सडकें और इमारतें बनाना नहीं है, सरकार का दायित्व भविष्य की रक्षा भी है। अगर अरावली टूटी तो जवाब कौन देगा? जब जल संकट बढेगा, तापमान असहनीय होगा और रेगिस्तान आगे बढेगा, तब एसी कमरों में लिए गए फैसलों की तपिश आम जनता झेलेगी, खासकर राजस्थान का गरीब किसान।
​लेकिन याद रखना मेरी चोट सिर्फ मेरी नहीं रहती। जब मैं कमजोर पडती हूं, तो दूर बैठे पहाड भी कांपते हैं।
​क्या आपको लगता है कि अरावली कटेगी और उत्तराखंड सुरक्षित रहेगा? नहीं। पहाड अलग दिखते हैं, लेकिन प्रकृति की नसें जुड़ी होती हैं। जब मेरी चट्टानें हटाई जाती हैं, तो मानसून का संतुलन बिगडता है। हवाएं बिना रोकटोक आगे बढती हैं और उनका सारा दबाव हिमालय पर पडता है। फिर वही होता है, जो उत्तराखंड में हम रोज देख रहे हैं। कहीं बादल फटते हैं, कहीं पहाड खिसकते हैं, कहीं पूरी बस्तियां एक ही झटके में बह जाती हैं।
​मैं जब बारिश को थामती थी, जमीन में उतारती थी, तब हिमालय पर बोझ कम रहता था। आज बारिश रुकती नहीं, दौडती है। और जब पानी दौडता है, तो पहाड टिक नहीं पाते। मेरे टूटने से पश्चिम की गर्म हवाएं और ताकतवर हो जाती हैं। वे उत्तर भारत को तपाती हुई हिमालय तक पहुंचती हैं। उत्तराखंड का तापमान बढता है, ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं और नदियां कभी उग्र होती हैं, कभी अचानक सूखने लगती हैं।
​गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियां सिर्फ पानी नहीं हैं, वे उत्तराखंड की आत्मा हैं। जब उनका स्वभाव बिगडता है, तो हाइड्रो प्रोजेक्ट खतरे में पडते हैं, खेती अस्थिर होती है और तीर्थ यात्राएं मौत के रास्ते बन जाती हैं। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री ये सिर्फ आस्था के स्थल नहीं हैं, ये चेतावनी हैं। ये बताते हैं कि जब प्रकृति का संतुलन टूटता है, तो पहाड सबसे पहले चुपचाप रोते हैं। और फिर बात सिर्फ हिमालय की नहीं रह जाती।
​अब यह तय करना होगा कि हम विकास चाहते हैं या विनाश। विकास वह नहीं जो पहाडों की कब्र पर खडा हो। विकास वह है जो प्रकृति के साथ चले, उसके विरुद्ध नहीं। अगर सरकार सच में जनहित में सोचती है, तो अरावली को खनन योग्य जमीन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्राकृतिक धरोहर का दर्जा देना होगा।
​अभी भी समय है। मैं अरावली हूं। मैं अभी पूरी तरह टूटी नहीं हूं। मेरेे कुछ जंगल अब भी खडे हैं, मेरी कुछ नसों में अब भी पानी बहता है। लेकिन याद रखना—जब पहाड गिरते हैं, तो सिर्फ पत्थर नहीं गिरते, सभ्यताओं की नींव हिल जाती है।
​अंतिम सवाल इंसान से इंसान तक है—क्या इतिहास यह लिखेगा कि एक पीढी के पास ज्ञान था, विज्ञान था और चेतावनियां थीं, फिर भी उसने हजारों साल पुराने पहाड को मरने दिया? अरावली का दर्द सुनो। क्योंकि कल यह दर्द राजस्थान की रेत में, दिल्ली की हवा में और हमारी नसों में होगा। अरावली बचेगी तो पानी बचेगा। पानी बचेगा तो राजस्थान बचेगा। और तभी देश बचेगा।
नोट: यह लेख किसी दल के विरोध में नहीं, नीति और विवेक के पक्ष में है। अरावली बचेगी तो पानी बचेगा। पानी बचेगा तो राजस्थान बचेगा। और तभी देश बचेगा।।

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