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एप्सटीन फाइल, सत्ता और सूचना की विश्वसनीयता : लोकतंत्र के सामने एक गंभीर प्रश्न:---

अमेरिका में बहुप्रतीक्षित जेफ़्री एप्सटीन फाइल अंततः 19 दिसंबर की रात्रि को सार्वजनिक कर दी गई। बताया जा रहा है कि यह फाइल लगभग 300 जीबी की है, किंतु जनता के समक्ष मात्र 2 जीबी की ही सूचना प्रस्तुत की गई। यह तथ्य अपने आप में कई प्रश्न खड़े करता है—क्या शेष सूचनाएँ महत्वहीन थीं, या फिर उन्हें जानबूझकर सार्वजनिक नहीं किया गया?
जारी की गई सीमित जानकारी में यह भी स्पष्ट रूप से देखा गया कि पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन (डेमोक्रेटिक पार्टी) से संबंधित चित्रों और संदर्भों को अपेक्षाकृत अधिक प्रचारित किया गया, जबकि वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (रिपब्लिकन पार्टी) से जुड़ी जानकारियाँ अत्यंत सीमित रूप में सामने आईं। इससे यह संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि सत्ता में बैठे लोग सूचना के चयन, प्रस्तुतीकरण और सेंसरशिप पर प्रभाव डालते हैं।
सत्ता, सूचना और मैनिपुलेशन
यह कोई नया सत्य नहीं है कि सत्ता में बैठा व्यक्ति या दल सामान्यतः वही सूचनाएँ सार्वजनिक करता है जो उसके हित में हों। जो तथ्य सत्ता के विरुद्ध जाते हों, उन्हें या तो दबा दिया जाता है, अधूरा प्रस्तुत किया जाता है, या फिर इस प्रकार घुमा-फिराकर सामने लाया जाता है कि उनका वास्तविक प्रभाव समाप्त हो जाए।
इस स्थिति में यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि—
क्या सत्ता द्वारा दी गई सूचना पूरी, सत्य और विश्वसनीय होती है?
जब सूचना का स्रोत स्वयं सत्ताधारी तंत्र हो, तो उसकी निष्पक्षता पर प्रश्न उठना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
लोकतंत्र और जनता का सूचना का अधिकार
लोकतंत्र केवल मतदान का अधिकार भर नहीं है। लोकतंत्र की आत्मा इस बात में निहित है कि नागरिकों को सत्य जानने का अधिकार हो।
भारत सहित विश्व के अनेक लोकतांत्रिक देशों में सूचना का अधिकार (RTI) इसी उद्देश्य से लाया गया था, किंतु व्यवहार में अक्सर देखा जाता है कि—
सूचनाएँ देने से इनकार कर दिया जाता है
या अधूरी, अस्पष्ट और घुमावदार जानकारी दी जाती है
या “राष्ट्रीय हित” और “गोपनीयता” के नाम पर वास्तविक तथ्य छुपा लिए जाते हैं
ऐसी स्थिति में RTI भी अपने उद्देश्य से भटकता हुआ प्रतीत होता है।
निष्पक्ष पत्रकारिता : एकमात्र आशा?
सैद्धांतिक रूप से सही सूचना प्राप्त करने का सबसे मजबूत माध्यम निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता मानी जाती है। किंतु वर्तमान समय में पत्रकारिता भी गंभीर संकट से गुजर रही है।
कॉरपोरेट हित, विज्ञापन, राजनीतिक दबाव और आर्थिक निर्भरता के कारण पत्रकारिता का एक बड़ा हिस्सा निष्पक्ष नहीं रह पा रहा है।
कहा जाता है—
“रुपया खुदा नहीं है, लेकिन खुदा से कम भी नहीं है।”
आज यह कथन मीडिया और सूचना तंत्र पर पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है।
जनता क्या करे?
जब सरकार की सूचनाएँ संदेह के घेरे में हों, RTI सीमित हो और मीडिया निष्पक्ष न रह पाए, तो आम नागरिक के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है—
सत्य कहाँ से प्राप्त किया जाए?
इसका उत्तर सरल नहीं है, किंतु कुछ रास्ते अवश्य हैं—
विविध स्रोतों से सूचना प्राप्त करना, किसी एक माध्यम पर निर्भर न रहना
तथ्यों की तुलना और तार्किक विश्लेषण करना
स्वतंत्र, जनपक्षीय और खोजी पत्रकारिता को समर्थन देना
सूचना तंत्र और मीडिया की संस्थागत स्वतंत्रता के लिए सामाजिक दबाव बनाना
एप्सटीन फाइल का सीमित और चयनात्मक खुलासा केवल अमेरिका की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्व के लोकतंत्रों की वास्तविकता को उजागर करता है।
यदि लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में जीवित रखना है, तो निष्पक्ष पत्रकारिता, पारदर्शी सूचना तंत्र और सच जानने के नागरिक अधिकार को और अधिक मजबूत करना होगा।
अन्यथा लोकतंत्र केवल एक औपचारिक व्यवस्था बनकर रह जाएगा—
जहाँ वोट तो होगा, पर सत्य नहीं।
ओ पी रतूड़ी मेरठ

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