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कुंभ की मानवता की पहचान बना ‘भूले-भटके शिविर’, दशकों से बिछड़ों को मिलाने का अनवरत प्रयास

प्रयागराज |
कुंभ और माघ जैसे विशाल धार्मिक आयोजनों में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के बीच बिछड़ने की घटनाएं आम होती हैं। ऐसे समय में ‘भूले-भटके शिविर’ हजारों नहीं बल्कि लाखों परिवारों के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरा है, जो वर्षों से बिछड़े लोगों को उनके परिजनों से मिलाने का कार्य कर रहा है।

इस ऐतिहासिक और मानवीय सेवा की शुरुआत वर्ष 1946 के कुंभ मेले में समाजसेवी राजा राम तिवारी द्वारा की गई थी, जिन्हें श्रद्धालु स्नेहपूर्वक ‘भूले-भटके बाबा’ के नाम से जानते हैं। उन्होंने एक साधारण टिन के लाउडस्पीकर के माध्यम से खोए हुए लोगों के नाम पुकारने की शुरुआत की, जो आगे चलकर एक संगठित सामाजिक सेवा आंदोलन बन गया।

पारंपरिक घोषणा से डिजिटल तकनीक तक
समय के साथ शिविर ने आधुनिक तकनीक को अपनाया। आज लाउडस्पीकर के साथ-साथ व्हाट्सएप ग्रुप और डिजिटल माध्यमों का उपयोग कर खोए हुए श्रद्धालुओं की जानकारी और तस्वीरें साझा की जाती हैं, जिससे उन्हें शीघ्र उनके परिजनों तक पहुँचाया जा सके।150 से अधिक स्वयंसेवकों की निःस्वार्थ भूमिका इस सेवा को सफल बनाने में 150 से अधिक स्वयंसेवक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह टीम विशेष रूप से उन ग्रामीण श्रद्धालुओं की मदद करती है, जो तकनीकी साधनों से परिचित नहीं होते।
उल्लेखनीय है कि यह संपूर्ण सेवा पूरी तरह निःशुल्क और बिना किसी मानदेय के संचालित की जाती है।
विरासत को आगे बढ़ा रहे उमेश तिवारी संस्थापक राजा राम तिवारी के निधन के बाद यह सेवा उनके पुत्र उमेश तिवारी द्वारा उसी समर्पण और सेवा-भाव के साथ आगे बढ़ाई जा रही है।

आज यह शिविर भारत सेवा दल के नाम से भी जाना जाता है और कुंभ मेले की एक अनिवार्य मानवीय पहचान बन चुका है।

मानवता की मिसाल

दशकों से निरंतर कार्यरत भूले-भटके शिविर न केवल एक सेवा केंद्र है, बल्कि भारतीय संस्कृति में सेवा, करुणा और सामाजिक उत्तरदायित्व का सशक्त प्रतीक भी है।

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