
यह केवल एक खबर नहीं, यह 21वीं सदी के भारत के चेहरे पर पड़ा वह सवाल है, जिसका जवाब शासन-प्रशासन, समाज और हम सबको देना होगा।
भगवान सब कुछ दें, पर किसी को गरीबी न दें…
क्योंकि गरीबी सिर्फ भूख नहीं देती,
यह इंसान से उसका सम्मान, उसका हक़ और अंत में उसकी ज़िंदगी भी छीन लेती है।
तस्वीर में ठंड से बचने के लिए जूट के बोरे को स्वेटर की तरह पहनने वाला शख्स कोई प्रतीक नहीं था, वह एक ज़िंदा इंसान था—
अमर बहादुर उर्फ अमरू।
था… इसलिए क्योंकि अब वह इस दुनिया में नहीं है।
बुधवार को कोरारी लच्छनशाह में लगभग 42 वर्ष की उम्र में उसी हालात में उसका शव मिला, जिस हालात में वह जी रहा था—
बेबस, बेसहारा और अभावों से घिरा हुआ।
अमरू अमेठी जनपद के भेटुआ ब्लॉक अंतर्गत पीपरपुर ग्राम पंचायत के रामापुर गांव का निवासी था।
घर में एक विधवा, उम्र से झुकी हुई मां फूलकली और एक बड़ा भाई—
बस यही उसका संसार था।
दोनों भाई मजदूरी कर किसी तरह पेट भरते थे।
आबादी से दूर सुनसान जगह पर बने दो कमरे के टूटे-फूटे मकान के अलावा उनके पास कुछ नहीं था।
यही उनकी पैतृक संपत्ति थी, यही उनकी नियति।
ऐसी हालत में रिश्ते नहीं आते,
घर नहीं बसते,
और सपने तो बहुत पहले ही दम तोड़ देते हैं।
गरीबी, लाचारी और अभावग्रस्तता से न टूटने वाली मां फूलकली,
आज बेटे की मौत से पूरी तरह टूट चुकी हैं।
अमरू की मौत के बाद पोस्टमार्टम तो हो गया,
शव शाम को घर भी पहुंच गया—
लेकिन यह लिखते हुए हाथ कांपते हैं कि
अगर समाज के कुछ संवेदनशील लोग आगे न आते, तो शायद अमरू की अंतिम यात्रा भी सम्मान के साथ न हो पाती।
पूर्व प्रधान तुलसीराम यादव,
पूर्व प्रधान रामजतन यादव,
वर्तमान प्रधान प्रतिनिधि रामराज यादव
और गांव के कुछ इंसानियत-पसंद लोगों ने मिलकर
अमरू की विधिवत अंत्येष्टि कराई।
यह समाज की मानवता का प्रमाण है—
लेकिन साथ ही व्यवस्था की असफलता का भी।
मीडिया के माध्यम से जब यह सच्चाई सामने आई,
तब जिलाधिकारी संजय चौहान के निर्देश पर
एसडीएम अमेठी आशीष सिंह देर शाम अमरू के घर पहुंचे।
उन्होंने मां को ढांढस बंधाया,
घर का निरीक्षण किया
और लोगों से परिवार की स्थिति की जानकारी ली।
प्रशासन के इस जिम्मेदार रवैये से
अब परिवार की हालत में सुधार की उम्मीद तो जगी है—
लेकिन सवाल वही है—
काश यह पहले हो गया होता।
आज जब देश चांद पर पहुंचने के सपने देख रहा है,
जब विकास के आंकड़े गिनाए जा रहे हैं,
जब आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है—
उसी दौर में
एक इंसान ठंड, भूख और एक कपड़े के अभाव में मर जाता है।
तो सवाल उठता है—
क्या यही तरक्की है?
क्या यही विकास है?
यह लेख किसी को दोष देने के लिए नहीं,
बल्कि जगाने के लिए है।
शासन से—
कि योजनाएं कागज़ों से निकलकर ज़मीन तक पहुंचें।
प्रशासन से—
कि संवेदनशीलता खबर बनने के बाद नहीं,
पहले दिखे।
और समाज से—
कि इंसानियत किसी फोटो या पोस्ट तक सीमित न रहे।
समाजसेवियों से―
कि आप भी समाज सेवा का झूला उठा टहलते हैं उसके बाद भी सिर्फ फोटो तक ही सीमित रह जाता है आपका प्रोपेगेंडा वास्तविक लोगों की पहुंच से आप दूर रहते हैं।
क्योंकि अगर आज भी अमरू मर रहे हैं,
तो चांद पर पहुंचना भी हमें इंसान नहीं बना पाया।