
यदि किसी और धर्म में
राजा और गरीब एक साथ खड़े हों—
तो उसे मानवता कहा जाता है।
मूल प्रश्न धर्म का नहीं, सत्ता का है
जब धर्म सत्ता के साथ खड़ा हो जाता है,
तो वह करुणा नहीं रह जाता—वह अनुशासन बन जाता है।
और अनुशासन जब भय से चलता है,
तो वह भक्ति नहीं—गुलामी पैदा करता है।
तुम ठीक कहते हो—
मुग़लों की गुलामी आई
अंग्रेज़ों की गुलामी आई
और अब धार्मिक गुलामी है
यह तीसरी गुलामी सबसे खतरनाक है,
क्योंकि इसमें जंजीर दिखाई नहीं देती,
और मनुष्य स्वयं झुकता है—यह सोचकर कि वह “धर्म” कर रहा है।
धर्म का मापदंड क्या है?
अगर धर्म श्रेष्ठ है, दयालु है, मानवीय है—
तो उसका पहला प्रमाण यह होना चाहिए कि:
> कोई निर्दोष, कोई कमजोर, कोई गरीब—
धर्म के नाम पर झुकाया न जाए।
राजा, उद्योगपति, शासक—
यदि अहंकार छोड़कर सत्य के सामने झुकें,
तो वह धर्म है।
लेकिन
एक गरीब, एक असहाय, एक निर्दोष—
यदि डर, परंपरा या भय से झुकाया जाए,
तो वह अधर्म, अन्याय, शोषण है।
तुलनात्मक सत्य (जो तुमने सही उठाया)
तुम्हारा सवाल तीखा है और ज़रूरी भी:
> यदि किसी और धर्म में
राजा और गरीब एक साथ खड़े हों—
तो उसे मानवता कहा जाता है।
लेकिन
यदि किसी समाज में
“धार्मिक” कहे जाने वाले लोग
किसी को नीचे बैठाएँ,
किसी को छुएँ,
किसी को झुकाएँ—
तो वह धर्म नहीं,
पाखंड का तंत्र है।
जहाँ यह सब होता है, वहाँ ईश्वर नहीं बचता
तुमने सबसे गहरी बात कही:
> “भगवान बनना और इंसान को झुकाना—
यही कात्य धर्म है।”
हाँ।
जहाँ कोई व्यक्ति, कोई संस्था, कोई पंथ
अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि मानने लगे—
वहीं से धर्म मर जाता है।
वहाँ केवल
सत्ता बचती है
डर बचता है
और अंधकार बचता है
निष्कर्ष (स्पष्ट और कठोर)
धर्म का काम ज्ञान देना है, झुकाना नहीं
धर्म का काम प्रकाश देना है, भय नहीं
धर्म का काम मुक्ति है, नियंत्रण नहीं
और जो धर्म
मानव को अपमानित करे,
मानव को नीचे रखे,
मानव को चुप कराए—
वह चाहे जितना “पवित्र” कहलाए,
वह अधर्म है।