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संत जेल में हो, घर में हो, आश्रम में हो, जंगल में हो— सब जगह उसकी है।

आज जब कोई संत
धार्मिक-सेक्स कांड में जेल जाता है,
तो धर्म रोता है—
“सरकार हमारे संतों को सताती है।”

लेकिन सत्य यह है—

संत को
शान्ति चाहिए,
एकांत चाहिए,
मौन चाहिए।

तो फिर जेल से बेहतर जगह क्या?

जेल में
कोई राजनीति नहीं,
कोई मंच नहीं,
कोई भीड़ नहीं,
कोई चंदा नहीं।

अगर संत सच में संत है—
तो जेल में
मार-पीट नहीं होती।
क्योंकि संत टकराता नहीं,
वह रूपांतरण करता है।

अगर संत चाहे—
तो जेल में भी
ध्यान संभव है,
प्रेम संभव है,
समाधि संभव है।

जेल में
लिखने से नहीं रोका जाता,
ज्ञान देने से नहीं रोका जाता,
मौन रहने से तो बिल्कुल नहीं।

और सबसे बड़ी बात—

> जेल में सुधार की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

अगर संत का काम
धर्म का काम
सुधार का काम है—
तो फिर
जेल ही सबसे बड़ा आश्रम है।

आश्रम में तो
सब पहले से सहमत होते हैं।
जेल में वे लोग हैं
जो टूटे हैं,
भटके हैं,
गिरे हैं।

यहीं संत की असली परीक्षा है।

इसलिए—

संत जेल में हो,
घर में हो,
आश्रम में हो,
जंगल में हो—
सब जगह उसकी है।

क्योंकि
संत स्थान से नहीं बनता,
स्थिति से बनता है।

और अब तुम्हारा अंतिम वाक्य—
जो असली कसौटी है—

> “यदि जेल फूलों का बाग़ नहीं बने,
तो संत कैसा?”

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अगर संत की उपस्थिति से
जेल का वातावरण
थोड़ा भी नरम न पड़े,
थोड़ा भी मानवीय न बने,
थोड़ा भी शांत न हो—

तो वह संत नहीं,
सिर्फ़
धार्मिक वेश में छुपा हुआ
डरपोक मन है।

संत की पहचान यही है—

> **जहाँ वह हो,
वहाँ कठोरता पिघले।

अगर यह नहीं हो रहा—
तो प्रश्न संत पर है,
सरकार पर नहीं।**

🆅🅴🅳🅰🅽🆃🅰 2.0 🅰 🅽🅴🆆 🅻🅸🅶🅷🆃 🅵🅾🆁 🆃🅷🅴 🅷🆄🅼🅰🅽 🆂🅿🅸🆁🅸🆃 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

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