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दिल्ली प्रदूषण: तारीखें बदलती हैं, 'खांसने' का मौसम नहीं

देवियों और सज्जनों, अपनी सीट बेल्ट बांध लीजिए और मास्क कस लीजिए, क्योंकि दिल्ली में साल का सबसे पसंदीदा 'त्योहार' शुरू हो चुका है। प्रदूषण महोत्सव! जैसे ही सर्दियाँ दस्तक देती हैं, हमारी सरकारें गहरी नींद से जागती हैं; ठीक उसी तरह जैसे कुंभकरण 6 महीने बाद जागते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि कुंभकरण जागकर खाना मांगते थे, और हमारी व्यवस्था जागकर सिर्फ 'मीटिंग' मांगती है। हर साल की तरह, इस साल भी दिल्ली 'गैस चैंबर' बन गई है। प्रशासन के पास इसका सबसे कारगर इलाज तैयार है ।"आपातकालीन बैठकें" और "गरमा-गरम समोसे"। आरोप-प्रत्यारोप का 'ओलंपिक खेल' भी जारी है। प्रदूषण कम हो या न हो, लेकिन टीवी चैनलों पर होने वाला ब्लेम-गेम भरपूर मनोरंजन देता है। दिल्ली सरकार कहती है, "यह पराली का धुआं है जो पड़ोसी राज्यों से वीजा लेकर आया है।" पड़ोसी राज्य कहते हैं, "हमारे किसान तो निर्दोष हैं, यह तो दिल्ली की गाड़ियों का पाप है।" वहीं केंद्र सरकार कहती है, "हम तो सिर्फ गाइडलाइन दे सकते हैं, हवा चलाना हमारे हाथ में नहीं है।" कुल मिलाकर, धुआं किसकी तरफ से आ रहा है, इस पर बहस होती रहती है और जनता के फेफड़े चुपचाप उस धुएं को फिल्टर करने का काम करते हैं। सच तो यह है कि जनता अब 'वोटर' नहीं, 'नेचुरल एयर प्यूरीफायर' बन चुकी है।
​सरकार ने प्रदूषण से लड़ने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करके जो 'स्मॉग टावर' लगाए हैं, वे आधुनिक काल के ताजमहल बन गए हैं। सुना है कि यह टावर प्रदूषण सोखने के बजाय पर्यटकों के लिए सेल्फी प्वाइंट ज्यादा बन गया है। इसकी कार्यक्षमता इतनी 'जबरदस्त' है कि इसके ठीक नीचे खड़े होकर भी आपको यह महसूस नहीं होगा कि हवा साफ है। इसे चलाने का खर्चा इतना है कि लगता है सरकार ने इसे 'मौन व्रत' पर रखा हुआ है।
​जब प्रदूषण हद से पार हो जाता है, तो सरकार 'GRAP' ( ग्रेप) नाम का अपना ब्रह्मास्त्र निकालती है। पहले कहते हैं, "कृपा करके धूल न उड़ाएं।" फिर कहते हैं, "डीजल जनरेटर बंद कर दें," (लेकिन वीआईपी इलाकों में नहीं)। फिर निर्माण कार्य और मजदूरों की रोजी-रोटी बंद कर दी जाती है। अंत में कहते हैं, "अब भगवान ही मालिक है, घर में रहें और प्राणायाम करें।" स्कूल बंद करना सरकार का सबसे पसंदीदा शौक है। जैसे ही हवा जहरीली होती है, बच्चों को घर बिठा दिया जाता है, मानों घर के अंदर की हवा स्विट्जरलैंड से मंगवाई गई हो। जब सारे तीर निशाने से चूक जाते हैं, तो सरकार 'ऑड-ईवन' का लॉलीपॉप थमा देती है। यह गणित का क्लास है या समाधान? इससे प्रदूषण कम होता है या नहीं, इसका कोई ठोस सबूत नहीं है; लेकिन जनता को यह जरूर पता चल जाता है कि आज किस नंबर की गाड़ी निकालनी है। यह प्रदूषण कम करने की योजना कम और "ट्रैफिक पुलिस का चालान कलेक्शन अभियान" ज्यादा लगता है।
​निष्कर्ष यही है कि सांसें हो रही हैं कम, और मीटिंग्स हैं बेदम। हर साल की कहानी यही है। फरवरी आते-आते हवा तेज होगी, प्रदूषण अपने आप कम हो जाएगा, और सरकार अपनी पीठ थपथपाते हुए कहेगी— "देखा! हमने कर दिखाया।" तब तक के लिए, दिल्लीवासियों के पास एक ही रास्ता है: मास्क पहनें, टैक्स भरें और अपनी इम्यूनिटी पर भरोसा रखें। क्योंकि सरकार 'चिंतित' है, और उनकी चिंता से ही तो देश चल रहा है!

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