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शीर्षक : विरूध (अर्थ — लता, टहनी और बेल )

शीर्षक : विरूध
(अर्थ — लता, टहनी और बेल )

छंद 1
विरूध शिशु-स्वप्न सा कोमल, जैसे भोर की उजली किरण,
माटी की गोद में पलकर, हरित कर देता सूना उपवन।
लता बन फैलता चुपचाप, जीवन का मौन संदेश लिए,
जैसे धड़कन सी चलती हो, हर कण आशाओं के दीप लिए॥

छंद 2
विरूध आशा की डोर समान, नभ तक धीरे खिंच जाए,
बेल बने तो थामे सहारा, निर्बल को बल दे जाए।
जैसे माँ की ऊँगली पकड़, बच्चा चलना सीख गया,
वैसे ही यह जीवन-पथ में, गिरकर फिर उठना सिखाए॥

छंद 3
टहनी है जैसे वृक्ष की बाँह, स्नेह-छाया फैलाती,
विरूध भी वैसी ही बनकर, हर पीड़ा को सहलाती।
आँधी-तूफाँ आएँ चाहे, यह टूटे न विश्वास,
जैसे धैर्य की मूर्ति खड़ी हो, बनकर मौन उपवास॥

छंद 4
बेल लिपटती जैसे नदी, तट को कर ले अपना,
विरूध सिखाए संबंधों में, जुड़ना है जीवन सपना।
अकेलेपन की शुष्क दीवार, हरियाली से ढक जाती,
जैसे सूखे मन में आशा, अचानक मुस्काती॥

छंद 5
कोमल तन पर साहस ऐसा, जैसे रेशम में वज्र छिपा,
विरूध झुके हर आँधी में, पर टूटे न इसका सिला।
यह शक्ति नहीं प्रदर्शन की, न ऊँचाई का अभिमान,
जैसे सागर गहरा होकर, मौन रखे अपनी शान॥

छंद 6
पत्थर पर भी उग आए जो, विरूध वही पहचान,
जैसे तपते मरु में फूटे, शीतल जल का दान।
सूखेपन में सावन लाए, हरियाली का वरदान,
यह प्रकृति का उपदेश बने, जीना है संघर्ष महान॥

छंद 7
ऋतु बदले, पत्ते झरें, जैसे जीवन के मोड़,
विरूध हर पतझर के बाद, लाए बसंत की ओट।
टूटन में भी सृजन छिपा, यह रहस्य समझाए,
जैसे अंधियारी रात के बाद, सूरज स्वयं उग आए॥

छंद 8
फूल खिले तो विरूध लगे, जैसे होंठों पर हँसी,
सुगंध बन फैल जाए यह, हर दिशा हर बसी।
भ्रमर गीत गुनगुनाएँ, वन बोले मंगल-गान,
जैसे दुख के बाद अचानक, सुख का हो आगमन॥

छंद 9
फल बनकर श्रम मीठा हो, जैसे तप का वरदान,
विरूध सिखाए धैर्य-साधना, त्याग बने पहचान।
जो देता है वही फलता है, यह प्रकृति का न्याय,
जैसे दीप जले तो ही करता, अंधियारे का क्षय॥

छंद 10
मानव जीवन भी विरूध सा, सहारे से आगे बढ़े,
संबंधों के वृक्ष थामकर, हर ऊँचाई सहज चढ़े।
अहंकार नहीं इसकी राह, विनय इसका श्रृंगार,
जैसे लता शिखर छूकर भी, झुकी रहे बारंबार॥

छंद 11
नभ को छूकर भी नम्र रहे, विरूध यही सिखाए,
जैसे नदी सागर पाकर भी, अपनी रीत न छोड़े जाए।
सरलता में सौंदर्य बसे, यह जीवन का सत्य,
जैसे ओस की बूँद में चमके, पूरा सूरज प्रत्यय॥

छंद 12
लता-टहनी-बेल की उपमा, जीवन का सार कहे,
विरूध बने जब मन का भाव, हर हृदय हरित रहे।
संघर्ष, सहारा, सौंदर्य—तीनों का संगम जान,
विरूध में छिपा है गुरुजी, प्रकृति का अमर विधान॥

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डिस्क्लेमर:- यह रचना कवि 🖌️🖌️ सुरेश पटेल सुरेश की मौलिक छंद-शैली कृति है; इसके भाव, विचार एवं प्रस्तुति पूर्णत: लेखक के स्वत्वाधिकार में सुरक्षित हैं।
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