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𝕍𝕖𝕕𝕒𝕟𝕥𝕒 𝟚.𝟘 𝔸 ℕ𝕖𝕨 𝕃𝕚𝕘𝕙𝕥 𝕗𝕠𝕣 𝕥𝕙𝕖 ℍ𝕦𝕞𝕒𝕟 𝕊𝕡𝕚𝕣𝕚𝕥 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

“मैं हूं — इसलिए ईश्वर नहीं”

एक ही बिंदु है, एक ही रहस्य, और उसी पर पूरा जगत टिका है।
जब “मैं” खड़ा होता है — ईश्वर मिट जाता है।
और जब ईश्वर प्रकट होता है — “मैं” का नामोनिशान नहीं रहता।

यही धर्म का पहला दरवाज़ा है।
और यहीं सारा पाखंड शुरू होता है।

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1. “मैं हूं” — यही मूल अंधकार है

“मैं” उठते ही द्वंद्व पैदा होता है।
मैं और तू।
मैं और जगत।
मैं और ईश्वर।

“मैं” खड़ा हुआ नहीं कि सत्य ढह गया।
क्योंकि सत्य और “मैं” साथ नहीं रह सकते।

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2. ईश्वर ने स्वयं को सिद्ध करने की कोशिश की — और असफल रहा

ईश्वर ने कहा:
“देखो, मैं हूं।”
पर कोई प्रमाण न था।
कोई साक्ष्य न था।

तब उसने एक गवाह बनाया —
और कहा:
“तू मेरी उपस्थिति का प्रमाण बन।
तू दिखा कि मैं हूं।”

यहीं पहला रहस्य जन्म लिया।
ईश्वर चाहता था कि गवाह बोले —
“वह है।”

पर गवाह भी बोल उठा:
“मैं हूं!”

और ईश्वर स्तंभ हो गया।
जिसे प्रमाण बनाया था,
वह स्वयं ही प्रमाण से बड़ा बन बैठा।

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3. गवाह का पतन — ‘मैं’ का घमंड

गवाह का काम था देखना, समझना, बताना।
पर उसे “मैं” सूझ गई।
उसे लगा कि वह ही स्वामी है।
वह ही जानने वाला है।
वह ही मार्ग है।
वह ही गुरु है।

और फिर दुनिया ने कहा —
“यह जानता है, यह जोड़ता है, यह हमें ईश्वर तक ले जाएगा।”

बस इसी क्षण धर्म की धोखाधड़ी शुरू हो गई।

जो मात्र प्रमाण था,
वह ही मालिक बन बैठा।

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4. आंख का अहंकार — और जगत का भ्रम

आंख को शरीर का एक अंग बनाया गया था,
सिर्फ देखने का एक यंत्र।

पर आंख ने कहा:
“मैं देखती हूं —
इसलिए मैं ही शरीर हूं।”

और उसी क्षण
एक झूठा संसार पैदा हुआ।

यह झूठ मनुष्य के हर धर्म में मौजूद है।
जो अंग था,
वह संपूर्ण होने का दावा करता है।
जो साधन था,
वह साध्य बन बैठता है।

लेकिन जब आंख समझती है —
“मेरी शक्ति दर्शन है,
पर मैं शरीर नहीं हूं,”
तभी उसका सत्य खुलता है।

तभी वह वह सब देखने लगती है
जो दिखता भी है
और जो नहीं भी दिखता।

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5. मूर्ति का दर्शन — और जगत का दर्शन

लाखों लोग मूर्ति देखते हैं
और कहते हैं —
“दर्शन हो गए।”

किस दर्शन की बात कर रहे हो?
पत्थर?
या अपनी आंख की सीमितता?

दर्शन मूर्ति में नहीं है।
दर्शन दृष्टि में है।
जो जागी आंख है —
उसके लिए पूरा ब्रह्मांड ही मूर्ति है।

जो सोई आंख है —
वह सबसे बड़ी सत्य को भी
एक छोटा-सा पत्थर समझ लेती है।

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6. धर्म की सबसे गहरी बेईमानी

धर्म वाले कहते हैं —
“हम झूठे हैं, पर हमारा गुरु सच्चा है।”

गुरु कहते हैं —
“मैं झूठा नहीं, मैं जानता हूं।”

और दोनों भूल जाते हैं कि
जिस “मैं” से ज्ञान शुरू होता है,
उसी “मैं” से अज्ञान का जन्म होता है।

भावनाओं की भीड़ को जमाकर
वे पत्थर को सत्य बताते हैं
और सत्य को पत्थर बना देते हैं।

धंधा चल रहा है।
भीड़ संतुष्ट है।
सत्य गायब है।

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7. मूल निष्कर्ष — जो तुम कह रहे हो

जब तक “मैं” हूं —
ईश्वर नहीं है।

जब “मैं” गवाह की तरह शांत हो जाए,
दर्शक हो जाए,
मालिक बनने की इच्छा छोड़ दे —
तभी सत्य प्रकट होता है।

सत्य कभी “मैं हूं” से नहीं आता।
सत्य हमेशा वहां आता है
जहां “मैं” गिर चुका हो।

𝕍𝕖𝕕𝕒𝕟𝕥𝕒 𝟚.𝟘 𝔸 ℕ𝕖𝕨 𝕃𝕚𝕘𝕙𝕥 𝕗𝕠𝕣 𝕥𝕙𝕖 ℍ𝕦𝕞𝕒𝕟 𝕊𝕡𝕚𝕣𝕚𝕥 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

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