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“जाती नहीं, गरीबी गिनी होती तो 81 करोड़ राशन लेने वालों की हकीकत सामने आ जाती!”

भोपाल।✍️ डॉ. महेश प्रसाद मिश्रा, भोपाल की कलम से:

पिछले कई वर्षों से संसद में एक ही नारा गूंज रहा है—“जातिगत जनगणना करो!”
और यह नारा सबसे ज्यादा किसके गले से निकलता है?युवराज… या कहें,तथाकथित ‘60 साल के युवा नेता’ राहुल गांधी के।

चिल्ला-चिल्लाकर वे देश को यह यकीन दिलाने में लगे हैं किभारत की सबसे बड़ी समस्या गरीबी, भूख, बेरोज़गारी नहीं…बल्कि जाती का विभाजन है। उधर सरकार भी नंबर गेम में पीछे न रहने के चक्कर मेंफटाफट घोषणा कर देती है—“हाँ, जातिगत जनगणना होगी!”जैसे किसी बच्चे ने कहा हो: “मैं भी खेलूंगा!”

पर असली सवाल—किसी ने यह क्यों नहीं पूछा कि हिंदुस्तान में जाति से ज्यादा ज़रूरी भूख की गिनती है? वैश्विक भूख सूचकांक 2025 मेंभारत 123 में से 102वें स्थान पर है।स्कोर—25.8 (गंभीर श्रेणी)। यह वही भारत है जहाँ “विश्वगुरु” का नारा लगाया जाता है,और वहीं 81 करोड़ लोग सरकारी दावे के अनुसार मुफ़्त राशन पर निर्भर हैं।पर असली कॉमेडी तो यह है—लाख–डेढ़ लाख की बाइक, 50–1 लाख के मोबाइल,और पॉकेट में महंगे गैजेट…और फिर भी लाइन में लगे हुए—“मुफ़्त राशन चाहिए!” क्यों? क्योंकि सरकारी कागज़ कहता है कि वे गरीब हैं। और वहीं जो सच में भूखा है, वह सूची से बाहर।क्योंकि दस्तावेज़ बताते हैं—“तुम तो सवर्ण हो, अमीर हो।” वाह! भारत की गरीबी भी अब जाति देखकर तय होती है।भूख भी “आरक्षण” मांगती है।और राशन भी “वंशवादी सेकुलरिज़्म” के आधार पर मिलता है।

सरकारें पूछती नहीं… मान लेती हैं: जो 81 करोड़ को राशन दे रही हैवह कभी यह नहीं पूछती—“राशन मिल किसे रहा है?”पर एक काम ज़रूर करती है—जाति पूछकर पात्रता तय करना। भूख नहीं देखनी,आय नहीं देखनी,भूमि नहीं देखनी…बस जाती लिख दो — सुविधा मिल जाएगी। और फिर वही लोग सोशल मीडिया पर लिखते हैं—“हम भारत को सुपरपावर बनाएंगे।”

**“देश भूख से 102वें स्थान पर खड़ा है, लेकिन नेताओं को जाति गिनने की इतनी जल्दी हैमानो भारत की समस्या दलिया नहीं, दलाल हैं!”**

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