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“प्रेम नहीं ‘वन-वे ट्रैफिक’! समाज की आँखों पर बंधी सेकुलर पट्टी आखिर कब उतरेगी?”

भोपाल।✍️ डॉ. महेश प्रसाद मिश्रा, भोपाल की कलम से:

भारत में प्रेम अब दिल की नहीं, धर्म की अदालत में तय होता है — और अजीब बात यह कि यह अदालत हमेशा एक ही दिशा में फैसला सुनाती है।उदाहरण अनगिनत हैं, इतिहास भी गवाह है — धर्मपरिवर्तन एकतरफ़ा है, लेकिन सेकुलरवाद दो तरफ़ा! मंसूर अली खान पटौदी–शर्मिला टैगोर का मामला हो या इमरान खान–जेमिमा का…नाम बदलते हैं, धर्म नहीं।कभी ‘आएशा बेगम’, कभी ‘हाइका खान’, कभी कोई और।लेकिन सवाल वही —अगर प्रेम सच्चा है तो धर्मपरिवर्तन किसलिए?और अगर धर्म बदल ही लिया, तो पुराना नाम क्यों?क्योंकि फ़िल्में ‘आएशा बेगम’ नाम से नहीं चलेंगी!

उच्च शिक्षित, आधुनिक, प्रगतिशील… लेकिन नियम वही पुराने सेकुलर विचारक अक्सर कहते हैं—“तलाक, जबरदस्ती, धर्मपरिवर्तन अज्ञानी तबके की समस्या है।”पर फिर इमरान खान, पटौदी, अज़हरुद्दीन, अब्दुल्ला परिवार जैसे “हाई-प्रोफाइल” लोग किस श्रेणी में आएंगे?

इतिहास से लेकर आज तक एक ही ट्रेंड—लड़की हिंदू हो, तो उसे धर्म बदलना पड़ेगा। लड़का हिंदू हो, तो उसे लड़की ही बदल देगी!क्या यह प्रेम है या ‘वन-वे ट्रैफिक’ जैसा ज़ाकिर नाइक खुद कह चुके हैं —अंदर आ सकते हो, वापस नहीं जा सकते’?

अंकित सक्सेना से लेकर असंख्य उदाहरण तक…सवाल बहुत बड़ा है—यदि सब बराबर हैं, तो फिर कितनी मुस्लिम लड़कियों ने प्रेम के लिए हिंदू बनना स्वीकार किया? और कितनी को समाज ने स्वीकार किया? उत्तर —शून्य के आसपास। क्यों? क्योंकि प्रेम की किताब में “बराबरी” का पन्ना हमेशा गायब होता है।

इतिहास का कड़वा सच – जिसने समझा, उसने घर-बार छोड़ा, पर सिर नहीं झुकाया सिरोंज के महेश्वरी समाज की कहानी याद कीजिए—पूरी बिरादरी ने एक रात में अपना शहर छोड़ दिया,
लेकिन सम्मान नहीं छोड़ा।आज 200 साल बाद भी उस इलाके में पानी तक नहीं पीते। क्योंकि पूर्वजों ने कहा था— “धन-धरती छोड़ देंगे, पर अस्मिता नहीं।” आज वही बात कोई कह दे, तो लोग उसे “सांप्रदायिक”, “असहिष्णु”, “दकियानूसी” कहने लगते हैं।

समाज सोया है — और सोने का नाम जागरण रख दिया गया है
आज की पीढ़ी फ़िल्मी प्रेम देख कर बोलती है—“धर्म क्या देखना! दिल देखो!”पर जब शादी का वक्त आता है,दिल गायब और शर्तें सामने:“निकाह होगा — धर्मपरिवर्तन भी।”मगर सेकुलर समाज को इसमें भी कविता दिखती है।जागना तब होता है जब किसी अंकित, किसी सरस्वती, किसी शहबानो की कहानी सामने आती है।लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

यदि हर धर्म बदलवाने वाला रिश्ता “प्रेम” है,तो फिर प्रेम दोनों दिशाओं में क्यों नहीं चलता? अगर बराबरी है, तो फिर कोई मुस्लिम लड़की क्यों नहीं कहती—“मैं हिंदू बनूँगी क्योंकि मेरा प्रेम सच्चा है”? अगर “सभी धर्म समान” हैं,तो धर्मपरिवर्तन की ज़रूरत किसे और क्यों?

**“यह प्रेम नहीं… एकतरफ़ा नियमों पर टिका समाज है—जहाँ सेकुलरता सिर्फ हिन्दू से उम्मीद की जाती है और बराबरी केवल भाषणों में मिलती है।”**

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