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मां का हृदय:लोक-लाज का जहर और मूक बलिदान ।

"दर्द इतना था कि हर रग में लहू जम जाए,
कोई आवाज़ न हो, और वो दम निकल जाए।"

-ये पंक्तियाँ उस असीम वेदना को दर्शाती हैं, जब माँ का हृदय अपनी सबसे बड़ी क्षति को स्वीकार करता है।

पिछले कुछ दिनों से शाहपुर पटोरी नगर परिषद के ब्लॉक मेन गेट के पास पड़े एक अज्ञात नवजात का अधजला शव का मिलना एक मां के मानवता को शर्मशार कर रही हैं ।

सृष्टि में सबसे पवित्र रिश्ता माँ और संतान का है। माँ का हृदय भावनाओं का वह सागर है, जिसकी गहराई को मापना असंभव है। परंतु जब नियति इस प्रेम की परीक्षा लेती है, तो स्त्री के जीवन में दो विपरीत, मगर समान रूप से हृदय विदारक अवस्थाएँ सामने आती हैं, जहाँ वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति को एकत्रित करके इस अथाह दुःख को सहती है।

एक विवाहित माँ, जिसने अपनी संतान को जन्म दिया, उसे पाला और उसके साथ अपने सारे भविष्य के सपने संजोए, जब किसी कारणवश उस बच्चे को खो देती है, तो उसका दुःख सार्वजनिक होता है।

वह अपने दर्द को बाहर निकालती है रोती है, चिल्लाती है, छाती पीटकर संसार को बताती है कि उसका सर्वस्व लुट गया है। उसके आँसू, उसकी चीखें, उसका विलाप... ये सब उसकी भावनाओं की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हैं। इस अवस्था में, उसे समाज और परिवार का पूरा संबल मिलता है। यह सांत्वना, सहानुभूति और सामूहिक दुःख का यह भाव उसे इस अथाह वेदना को सहने की मानसिक शक्ति देता है। उसका दर्द अग्नि की तरह बाहर निकलता है, जो भस्म करता है, पर उसे हल्का भी करता है।

दूसरी तरफ, वह अविवाहित माँ है, जिसने उसी शारीरिक पीड़ा से गुज़रकर बच्चे को जन्म दिया है, लेकिन जिस पर लोक-लाज का दानव भारी पड़ता है। समाज की कठोर, आलोचनात्मक और क्रूर निगाहों के डर से, वह अपने कलेजे के टुकड़े को त्यागने या उससे दूर होने का असहनीय निर्णय लेने को विवश होती है।

इस अवस्था में माँ दो असहनीय दुःख एक साथ सहती है:
1. संतान को जन्म देने का शारीरिक दर्द।
2. उसे हमेशा के लिए खोने और त्यागने का आत्मिक और भावनात्मक दर्द।

यह माँ अपने दुःख को पीने के लिए विवश होती है। वह अपने आँसुओं को अंदर ही अंदर सोख लेती है, अपनी चीखों को गले में दबा लेती है। उसे रोने की भी आज़ादी नहीं मिलती, क्योंकि एक आँसू भी उसके राज़ को खोल सकता है। उसका मातृत्व, उसका प्रेम और उसका दर्द – सब एक बंद कमरे का अंधेरा बन जाते हैं।


जिस भावनात्मक काबु की बात की जाती है, वह किसी साधारण कला से परे है।

पहली माँ का दर्द बाहर निकलकर दुःख को सहने लायक बनाता है; यह एक प्रकार की बाह्य-शक्ति (Extrovert Strength) है।

दूसरी माँ का दर्द एक गहरे, ठंडे घाव की तरह अंदर ही अंदर मवाद बनाता है; यह एक प्रकार की आंतरिक-शक्ति (Introvert Strength) है। वह तूफ़ान को अपने सीने में दबा लेने की मजबूरी में जीती है। यह 'नियंत्रण' कम, और 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' ज़्यादा है।

यह कहानी सिद्ध करती है कि नारी केवल कोमल नहीं, बल्कि "पहाड़ से भी ज़्यादा मज़बूत" होती है। वह अपने सबसे बड़े दुःख को सार्वजनिक विलाप में प्रकट करके भी जी सकती है, और अपने सबसे बड़े बलिदान को एक "मूक मुस्कान" के पीछे छिपाकर भी जीवन व्यतीत कर सकती है। माँ का हृदय दोनों अवस्थाओं में टूटता है, लेकिन उसकी सहनशक्ति उसे हर बार खड़ा कर देती है, भले ही वह भीतर से हमेशा के लिए अपूर्ण रह जाए।
:- निजी विचार ....

मनीष सिंह
शाहपुर पटोरी
@ManishSingh_PT

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