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पत्रकार संदीप मिश्रा पर हमला: सच दिखाने की सज़ा और पुलिस की भूमिका



कुशीनगर के डिजिटल पत्रकार संदीप मिश्रा के साथ हुई यह घटना पत्रकारिता के सामने खड़ी चुनौतियों और सत्ता-अपराध गठजोड़ की ओर गंभीर इशारा करती है। यह केवल एक पत्रकार पर हमला नहीं है, बल्कि स्वतंत्र रूप से सच लिखने के अधिकार पर सीधा प्रहार है।

कसया पुलिस थाने में रची गई साज़िश

संदीप मिश्रा द्वारा ठग कंपनियों की करतूतों को उजागर करने के बाद, जिस तरह से उन्हें दबाने की कोशिश की गई, वह अत्यंत निंदनीय है:

1. लालच और धमकी: पहले उन्हें रिपोर्टिंग रोकने के लिए लालच दिया गया, और जब वह असफल रहा, तो साज़िश रची गई।
2. झूठी तहरीर का बहाना: कसया पुलिस ने धोखे से संदीप मिश्रा को थाने बुलाया कि उनके खिलाफ कोई तहरीर (शिकायत) है, जबकि वहाँ ऐसी कोई शिकायत थी ही नहीं।
3. अपराधियों का मंच: पुलिस की उपस्थिति में ही, फ्रॉड कंपनियों के गिरोह ने संदीप मिश्रा के साथ दुर्व्यवहार किया, धमकाया, और उनके डिजिटल प्लेटफॉर्म से वीडियो जबरन डिलीट कराने की कोशिश की।

पुलिस की चुप्पी: मिलीभगत या मजबूरी?

सबसे गंभीर और चिंताजनक पहलू कसया पुलिस की भूमिका है:

पुलिस का थाने में अपराधियों को हिंसा और धमकी का मंच उपलब्ध कराना, और खुद मूकदर्शक बने रहना, सीधे तौर पर यह दर्शाता है कि या तो पुलिस भ्रष्ट तत्वों के दबाव में काम कर रही थी, या वह इस साज़िश में शामिल थी।
पुलिस स्टेशन, जो नागरिकों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखने का केंद्र है, यदि वहीं पत्रकार को धमकाया जाए और अपराधियों को संरक्षण मिले, तो यह कानून के राज का घोर अपमान है।

संदीप मिश्रा जैसे पत्रकार, जो जान जोखिम में डालकर 'भेड़ की खाल में छुपे भेड़ियों' को बेनकाब करते हैं, वास्तव में लोकतंत्र के रक्षक हैं। उनकी दृढ़ता सराहनीय है, लेकिन प्रशासन की यह उदासीनता पूरे समाज के लिए खतरनाक है।

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