
जब धार्मिक खुद जीने लगे ✧
यदि धार्मिक खुद जीना सीख ले
तो:
वेदान्त 2.0 अज्ञात अज्ञानी
✧ जब धार्मिक खुद जीने लगे ✧
यदि धार्मिक खुद जीना सीख ले
तो:
• न मंच बने
• न संस्था खड़ी हो
• न गुरु का व्यापार हो
• न घंटालगिरी चले
क्योंकि जिस क्षण कोई जीने लगता है —
उसे चाहिए ही क्या?
○ दो रोटियाँ
○ तन ढकने को कपड़ा
○ और भीतर आनंद, प्रेम, शांति
बस इतना ही तो जीवन है।
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लेकिन आज?
धर्म = व्यापार
मंच = मार्केट
गुरु = ब्रांड
भक्त = कस्टमर
और
मोक्ष = प्रोडक्ट
साधना = पैकेज
सेवा = पब्लिसिटी
धर्म = बिजनेस प्लान
यह जीवन नहीं,
यह उद्योग है।
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असली गुरुत्व क्या है?
जिसके जीवन में
जीवन की कला हो जाती है —
लोग स्वयं खिंचकर आते हैं।
जैसे ओशो के समय —
कोई प्रचार नहीं, कोई निमंत्रण नहीं
फिर भी दुनिया पागल होकर पहुँच गई
क्योंकि वहाँ जीवन था
कथाएँ नहीं।
धर्म वही है —
जहाँ जीना सीखने मिलता है
पाना नहीं।
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असली गुरु को क्या चाहिए?
उसे कुछ भी नहीं चाहिए।
क्योंकि:
○ जिसकी वासना रूपांतरित है
उसमें आनंद पूरा है
○ जिसे जीवन मिल गया
उसे साधन की लालसा नहीं
जैसे पुष्प —
“मधुमक्खी बुलाता नहीं”
फिर भी पूरा बाग उसके पास आता है।
भक्त खोजेगा नहीं —
भक्त खुद चलकर आएगा।
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आज का सत्य
आज के धार्मिक, राजनीतिक, गुरु —
सब बेच रहे हैं:
आशा, स्वर्ग, सफलता, मोक्ष, सिद्धि…
और साधारण जनता
अधिक वासना और अंधकार में फँसी हुई —
उन्हें साधन चाहिए,
जीना नहीं।
लेकिन याद रखो:
जनता पापी नहीं — पवित्र है
सिर्फ उसकी ऊर्जा की दिशा गलत है।
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सार
जहाँ धर्म जीने की कला देता है —
वह जीवित धर्म है।
जहाँ धर्म बेचने की दुकान बने —
वह मरा हुआ धर्म है।