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अनैतिक सत्ता समीकरण : "बिन जीते" मंत्री का शपथ ग्रहण

"लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है जनता के द्वारा चुने हुए लोग यह केवल एक वाक्य नहीं, यह उस *"शक्ति" की परिभाषा है जो भारत के हर नागरिक के हाथ में है—"मतदान की शक्ति"* लेकिन आज, जिस तरह की राजनीतिक विसंगतियाँ और अनैतिक प्रवृत्तियाँ देखने को मिल रही हैं, वे इस महान लोकतंत्र की नींव को हिला रही हैं। यह स्थिति *"राजतंत्र" के उस काले अध्याय की याद दिलाती है, जहाँ "वंशवाद" और "व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा" ही एकमात्र कानून थी।

पहला छल: सड़क से सिंहासन तक बिन जीते 'मंत्री' का क्रूर मज़ाक

यह कैसी विडंबना है कि जिस व्यवस्था का मूलमंत्र "जनता का शासन" (People's Rule) है, वहाँ कुछेक नेता, "सत्ता के अहंकार" में चूर होकर, संविधान की गरिमा को धूल में मिला रहे हैं!

बिहार विधानसभा चुनाव का उदाहरण, जहाँ एक वरिष्ठ नेता ने अपने पुत्र को सीधे "सड़क से खींचकर मंत्री पद की शपथ" दिला दी, यह न केवल एक राजनीतिक घटना है, बल्कि लोकतंत्र के माथे पर एक "कलंक" है। यह सीधे-सीधे उस "राजशाही" मानसिकता का प्रदर्शन है, जहाँ राजा अपनी इच्छा से पुत्र को गद्दी सौंप देता था।
जनादेश का तिरस्कार मंत्री पद जनसेवा और जनप्रतिनिधित्व का सर्वोच्च प्रतीक है। जब कोई व्यक्ति बिना चुनाव लड़े, बिना जनता के मैंडेट के, संवैधानिक पद ग्रहण करता है, तो यह उस लाखों मतदाता का खुला अपमान है, जिन्होंने मतदान की पंक्ति में खड़े होकर लोकतंत्र को जीवित रखा।

परिवारवाद का वीभत्स रूप:-यह प्रवृत्ति 'परिवारवाद' (Dynastic Politics) को "योग्यता" और "जनता की सेवा" पर प्राथमिकता देती है। यह योग्यता-आधारित व्यवस्था के विपरीत है और सिद्ध करती है कि सत्ता के गलियारों में "खून का रिश्ता" जनमत के रिश्ते से ज़्यादा मायने रखता है।

ऐसे 'गैर-निर्वाचित' मंत्री, जो जनता के प्रति "जवाबदेह" नहीं हैं, जब महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लेते हैं, तो वे केवल अपने परिवार और निजी स्वार्थों की पूर्ति करते हैं, जिससे सुशासन की भावना को गहरी चोट पहुँचती है।

दूसरा छल: 'विश्वासघात' की राजनीत जनमत का सौदा "दल-बदल" और "सत्ता की लोलुपता" लोकतंत्र को अंदर से खोखला कर रहा है। मतदाता जिस विचारधारा, दल और वादों पर भरोसा करके अपना प्रतिनिधि चुनते हैं, जब वही प्रतिनिधि "विरोधी" दलों से मिलकर "सत्ता का 'सुख भोग" करना शुरू कर देते हैं, तो यह जनता के साथ सबसे बड़ा "गंदा मज़ाक"और "विश्वासघात" होता है।

वोटर केवल व्यक्ति को नहीं, बल्कि उसके "सिद्धांतों" को वोट देता है। जब चुने हुए नेता "नैतिकता" और "सिद्धांत" को सत्ता की कुर्सी के आगे बेच देते हैं, तो वे केवल पार्टी नहीं बदलते, बल्कि उस जनमत की आत्मा (Soul of the Mandate) को भी बेच देते हैं।
यह प्रवृत्ति स्पष्ट करती है कि आज की राजनीति में, सेवा, सिद्धांत और नैतिकता का स्थान "सत्ता लोलुपता" ने ले लिया है। राजनीति अब "जनसेवा का मिशन" नहीं, बल्कि "व्यक्तिगत करियर और लाभ कमाने का साधन" बन गई है।

यह लेख केवल एक विमर्श नहीं, बल्कि एक "आवाहन" है। लोकतंत्र कोई स्वतः संचालित मशीन नहीं है; इसे "नागरिकों की सजगता" और "कड़ी निगरानी" से पोषित करना पड़ता है।

आज भारतीय राजनीति एक "नैतिक संकट" के मुहाने पर खड़ी है। नेताओं को संवैधानिक नैतिकता का पालन करना होगा, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी "जनता" की है। जब तक नागरिक इन "अनैतिक प्रथाओं" और "पारिवारिक राजशाही" पर चुप रहेंगे, तब तक लोकतंत्र की सुंदरता मज़ाक बनती रहेगी।

जनता को अपने "वोट की शक्ति" को पहचानना होगा और ऐसे प्रतिनिधियों को "नकारना" होगा जो जनमत को केवल सत्ता प्राप्ति की सीढ़ी समझते हैं। लोकतंत्र की रक्षा का "अंतिम दायित्व और शक्ति" केवल और केवल "जनता" के ही हाथों में है।

मनीष सिंह
शाहपुर पटोरी
@ManishSingh_PT

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