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बिहार की सत्ता का गणित और जातीय बैलेंस शीट

✍️ हरिदयाल तिवारी

बिहार की सत्ता का पूरा तानाबाना आज भी जातीय संतुलन की बैलेंस शीट पर ही टिका हुआ है। कौन कितनी हिस्सेदारी पाता है—यही आगे चलकर चुनावी संदेश को जनता तक पहुँचाने का सबसे प्रभावी आधार बनता है। 20 नवंबर 2025 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी 10वीं पारी की शुरुआत की और उनके साथ कुल 27 मंत्रियों ने शपथ ली। दिलचस्प बात यह रही कि एक बार फिर मंत्रिमंडल का सबसे बड़ा आधार राजपूत समुदाय बना, जबकि संख्या के आधार पर दलित मंत्रियों की संख्या अधिक है—लेकिन उपजातियों में बिखराव के कारण उनका प्रभाव खंडित दिखाई देता है। नीतीश के 26 कैबिनेट मंत्रियों (सीएम को छोड़कर) में भाजपा के 14, जदयू के 9, लोजपा-आर के 2 और हम तथा रालोमो के 1-1 सदस्य शामिल हुए हैं। यह साफ दर्शाता है कि 2025 के चुनावी संदेश और सामाजिक समीकरण को ध्यान में रखकर एनडीए ने सावधानीपूर्वक संतुलन साधा है।

राजपूत सबसे आगे: लगातार दूसरी बार शीर्ष स्थान

इस बार कैबिनेट में 4 राजपूत मंत्री शामिल किए गए हैं। पिछली बार यह संख्या 5 थी, फिर भी वे सभी प्रमुख जातियों से आगे हैं। राजपूत समाज भाजपा का परंपरागत वोटबैंक रहा है और पार्टी ने उसके प्रतिनिधित्व को बनाए रखा है। प्रमुख राजपूत मंत्री हैं—लेशी सिंह, संजय सिंह टाइगर, श्रेयसी सिंह और संजय कुमार सिंह। ये सभी नेता क्षेत्रीय प्रभाव और जनाधार के आधार पर गठबंधन को मजबूती देते हैं।

दलित समुदाय: संख्या अधिक लेकिन प्रभाव बिखरा हुआ

दलित समुदाय से कुल 5 मंत्री बने हैं, जो संख्या की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन यह प्रतिनिधित्व उपजातियों में बंटा हुआ है—दुसाध (पासवान) 2, मुसहर 1, रविदास 1 और पासी 1। इस बिखराव के कारण दलित समुदाय में सामूहिक प्रभाव कमजोर पड़ता है। हालांकि पासवान समाज के दो मंत्रियों से भाजपा ने एलजेपी-आर और चिराग पासवान के प्रति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता मजबूत की है।

कुर्मी, कोइरी, यादव, भूमिहार, निषाद—संतुलित प्रतिनिधित्व

नीतीश के सामाजिक आधार की रीढ़—कुर्मी व कोइरी—दोनों को 2-2 मंत्री पद दिए गए हैं। इसी तरह भूमिहार, यादव और निषाद समुदाय को भी समान प्रतिनिधित्व मिला है। यह संतुलन तीन स्पष्ट संकेत देता है: (1) एनडीए EBC-OBC-सवर्ण गठजोड़ को एकजुट रखना चाहता है। (2) कुर्मी-कोइरी की जोड़ी—नीतीश-सम्राट—गठबंधन की धुरी है। (3) यादव वोटबैंक को धीरे-धीरे जोड़ने की कोशिश जारी है।

ब्राह्मण से लेकर कानू तक: प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व

कई समुदायों को 1-1 मंत्री पद देकर सरकार ने सबको शामिल करने का संदेश दिया है—ब्राह्मण, कलवार, कायस्थ, सूड़ी, तेली, धानुक, मुसलमान और कानू। जेडीयू ने जमा खान को फिर से मंत्री बनाकर यह भी संकेत दिया कि अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व को पूरी तरह बाहर नहीं किया गया है।

परिवारवाद की उपस्थिति

मंत्रिमंडल में परिवारवाद की झलक भी दिखी। जीतनराम मांझी के बेटे संतोष सुमन और उपेंद्र कुशवाहा के बेटे दीपक प्रकाश को मंत्री बनाया गया है। इसके अलावा कुछ नेता वे भी हैं जो पति या पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, जिससे यह मुद्दा फिर चर्चा में है।

कैबिनेट गठन की राजनीतिक गणित

कैबिनेट गठन में तीन बड़े राजनीतिक संकेत छिपे हैं—(1) भाजपा ने अपने पारंपरिक वोटबैंक—सवर्ण-ओबीसी—को मजबूत रखा। (2) जदयू ने नीतीश के पुराने सामाजिक सूत्र—कुर्मी-कोइरी-महादलित—को बरकरार रखा। (3) विपक्ष के जातीय अभियानों का जवाब एनडीए ने जातीय पुनर्संतुलन के माध्यम से देने की कोशिश की है।

नीतीश की 10वीं पारी: इतिहास रचने वाली यात्रा

नीतीश देश के इकलौते नेता बन गए हैं जिन्होंने 10 बार मुख्यमंत्री पद संभाला है। वे 19 साल 115 दिन तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं—जो बिहार के पिछले 17 मुख्यमंत्रियों के कुल कार्यकाल से भी अधिक है। उनकी राजनीति की सबसे बड़ी ताकत—गठबंधन प्रबंधन और जातीय संतुलन—इस नए कैबिनेट की संरचना में साफ दिखाई देती है।

निष्कर्ष: बिहार की राजनीति में जाति ही निर्णायक

संपूर्ण मंत्रिमंडल सूची बताती है कि बिहार की राजनीति का आधार आज भी जातीय संतुलन ही है। नीतीश और एनडीए ने जनादेश को पढ़कर ऐसा सामाजिक संतुलन बनाया है जो आने वाले वर्षों में प्रशासन और विकास दोनों को दिशा दे सकता है।

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