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“न्याय में देरी, न्याय से इनकार के बराबर—उत्तर प्रदेश की न्याय व्यवस्था पर बड़ा सवाल!”

देश की न्यायिक व्यवस्था लंबे समय से लंबित मामलों, न्यायाधीशों की कमी, जटिल प्रक्रियाओं और कमजोर बुनियादी ढांचे के कारण गंभीर संकट से जूझ रही है। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लाखों मामले वर्षों से अटके पड़े हैं, जिनके चलते पीड़ितों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता। न्याय प्रक्रिया में आए इस भारी व्यवधान को लेकर लगातार आवाज उठाई जा रही है।

विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की सिविल कोर्टों में मामलों का निपटारा बेहद धीमी गति से हो रहा है। कई मामलों में एक आदेश जारी होने या किसी एक वाहन/व्यक्ति को रिहा-मुक्त करने भर में 6–6 महीने तक लग जाते हैं।
यह स्थिति न केवल न्याय में बाधा उत्पन्न करती है, बल्कि “देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता” की सच्चाई को भी साफ उजागर करती है।

इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए—
मैं, आनंद किशोर,
मानवाधिकार सुरक्षा अयौम संगठन
तथा
ऑल इंडिया मीडिया एसोसिएशन
की ओर से उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन से गंभीर प्रश्न उठाना चाहता हूँ:

➡ क्या यही हमारे देश का मानवाधिकार है?
➡ क्या न्याय के नाम पर जनता को वर्षों इंतजार कराया जाएगा?
➡ क्या न्यायिक सुधारों में तेजी लाने की सरकार की कोई ठोस योजना है?

देश के आम नागरिक से लेकर पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता तक सभी यही सवाल पूछ रहे हैं कि आख़िर कब सुधरेगी हमारी न्याय व्यवस्था, और कब मिलेगा वह न्याय जो समय पर और प्रभावी हो।

अब समय है कि शासन इस गंभीर समस्या पर ठोस कदम उठाए—
ताकि हर नागरिक को उसका हक, समय पर और पूर्ण न्याय के साथ मिल सके।

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