“गधे को घोड़ा और घोड़े को बंधक—आरक्षण की दौड़ में देश का भविष्य कौन थामेगा?”
✍️ डॉ. महेश प्रसाद मिश्रा, भोपाल की कलम सेदेश में पिछड़ा, गरीब और दलित किसे कहा जाए—यह सवाल अब इतना उलझ चुका है कि खुद व्यवस्था भी इसका जवाब देने की स्थिति में नहीं दिखती।वास्तविकता यह है कि आज यदि जांच हो जाए तो सरकारी स्कूलों में आरक्षण के आधार पर नियुक्त हुए SC, ST और OBC शिक्षक—अपने ही बच्चों को बेझिझक महंगे निजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं।विडंबना देखिए—जिन्हें सरकार ने “गरीब, पिछड़ा और वंचित” कहकर आरक्षण दिया, वही आज 1 से 1.5 लाख रुपये मासिक वेतन पाकर अपने बच्चों को उन निजी स्कूलों में भेज रहे हैं जहाँ शिक्षक की तनख्वाह मुश्किल से 30–40 हजार होती है।अब सवाल यही उठता है:जिसे अपने ही सरकारी स्कूल पर भरोसा नहीं—वह सरकारी पैसे पर बने इस विशाल ढांचे को क्यों ढो रहा है?और सरकार हर साल इन स्कूलों पर लगने वाले लाखों करोड़ रुपये किस भरोसे पर बहा रही है?सबसे अहम सवाल तो और गंभीर है—जो अपने बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ा सकता है… वह “गरीब” कैसे रह गया?क्या अब भी देश में “गरीबी” और “वंचित वर्ग” की परिभाषा की समीक्षा नहीं होनी चाहिए?या फिर वोट बैंक की राजनीति का यह खेल हमेशा इसी तरह चलता रहेगा, और देश जातिगत समीकरणों में उलझा रहेगा?सिर्फ जाति देखकर किसी को गरीब या अमीर घोषित करने का नियम—इससे बड़ी मूर्खता और कोई नहीं हो सकती।यही वह व्यवस्था है जिसमें गधे को घोड़ा बना दिया जाता है और असली घोड़े के पैरों में ऐसी जंजीरें डाल दी जाती हैं कि वह दौड़ में उतर ही नहीं सकता।यदि यही व्यवस्था ऐसे ही चलती रही तो भविष्य का अनुमान लगाना कठिन नहीं—श्रीलंका, बांग्लादेश या पाकिस्तान बनने में भी देर नहीं लगेगी।देश आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ सवाल सिर्फ नीतियों का नहीं—न्याय, योग्यता और भविष्य—तीनों के अस्तित्व का है।