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श्री नारायणाश्रम स्वामी और चीत्सुखाश्रमस्वामी समाधी मंदिर मुरलीपूर

महाराष्ट्र राज्य संतों की जन्मभूमी और महान विरासत है । अहिल्यानगर जिले के जामखेड तालुका पर्वत रांगो मे मोहरी नाम का प्राचीनग्राम है । इस पर्वत शृंखला मे बहुत सारे वृक्ष है जो निसर्ग सौंदर्य से संपन्न है । प्रदेश वृक्ष वल्लरी की बहारों से उमडा रहता है l लेकिन ऐतिहासिक दृष्टिकोन से दुर्लक्षित है ।
इस ग्राम को ऐतिहासिक कारणसे महत्व है । इस गाव मे शके १६५६ अर्थात सन १ १७ १६ तक मुघल साम्राज्य और छत्रपती शिवाजी महाराज कार्यकाल के बाद भी पेशवा कालतक महाराष्ट्र मे जहागीरदार वतन की परंपरा थी । जहागीरदारी परंपरा मे पेशवा की राज दौर मे राज्य की व्यवस्था लगाने के लिए और महसूल इकट्टा करने के लिए, सेनादल के प्रमुख अधिकारीको जहागीरदारी प्रदान की जाती थी । ये जहागीरदार कुणबी नाम किसानसे खेती बाडी कसकर उनसे धान्य के रूप मे कर सरकार दरबार मे जमा करते थे । कुणबी ये है जो ऐसी जहागीरदार के भूमिकी कसाई करते थे और अपना पेट पालते थे । जहागीरदार इस कुणबी की उपज से महसूल इकट्टा कर सरकार को नियमित रूप से कर रूप से महसूल देते थे । और खुद का तनखा भी यही महसूल से लेकर खुदका पेट पालकर राष्ट्र की रक्षा करते थे । बडी निस्वार्थ भावना थी । सच मे यह जहागीरदार एक छोटे इलाखे के स्वयं राजे ही थे । सोलहवी सदिमे मोहरी नामक एक ग्राम मे शंकर तुकदेव क्षीरसागर नामके जहागीरदार थे । उनके पूर्वज भी मुघलकाल से वाहा जहागिरी संभाल कर समाज का नेतृत्व करते थे । यही घर मे एक थोर महात्मा ने जन्म लिया ।उनका नाम शंकर सुखदेव क्षीरसागर था । वे परमहंस नारायणस्वामी जगद्गुरु शंकराचार्य की परंपरा के ज्ञानी शिष्य थे । शंकर क्षीरसागर इस महान संन्याशी के शिष्य और निस्सिम भक्त थे । उ सी कारण परमहंस नारायण स्वामीजीं का बहुत सारा जीवन कार्यकाल कालखंड मोहरी ग्राम मे बीता गया ।उन्होने इस मोहरी ग्राम मे आश्रम स्थापित कर दिया ।वहा स्वयं साधना भी की वे पहले ही परमहंस परमार्थ के अत्युच्य उपाधी से विभूषित थे ।
परमहंस उपाधी आध्यात्मिक गुरु को दी जाती है । (परम + हंस ) यह योग साधना मे प्राणा - पान को जिन्होंने नियंत्रित करके सोहम जाप तंत्र से परमात्मा मे तादात्म्य रखने मे यशस्वी होते है । ऐसेही यशस्वी संन्याशी को परमहंस उपाधी प्राप्त होती है । जिस संन्यासी ने शारीरिक और अध्यात्मिक विज्ञान का सुवर्णमध्य देखा है। ऐसेही साधकों को यही पदवी प्राप्त होती है । जिस संन्याशी ने परमसत्य पहचान लिया है, वही संन्यासी यह उपाधिका अधिकारी होता है ।
थोर महात्मा परमहंस नारायणस्वामी इन्होने यही पवित्र ग्राम मोहरी के भूमी मे सालोतक साधना की I श्री शंकर सुखदेव क्षीरसागर ये पात्र और पवित्र, महाज्ञानी शिष्य थे । उनकी सहायता से इस ग्राम मे परमहंस नारायण स्वामी ने आश्रम स्थापित किया । और वही आश्रम मे परमहंस नारायण स्वामीजी समाधीस्थ हो गये । यही समाधी उनका मृत्यू नही था । प्राणापान को अटाकर चिदा काश मे स्वरूप सरूपता मुक्ती पाकर शरीर को पद्मासन चिंमुद्रा लगाकर जीते जी ही ध्यान समाधी लेते है । उशी कारण उनके प्राण आजही वहाँ स्थित रहते है ।
परमहंस नारायण स्वामी के कृपा आशीर्वाद से सतशिष्य त्व औरअज्ञाधारकत्व के कारण नारायणस्वामी की सेवा काल मे ही शंकर क्षीरसागर को गुरुने चित्सुख स्वामी नाम से विभूषीत किया । गुरु नाम मिला और श्री शंकर क्षीरसागर गुरुनाम मिलकर कृतार्थ और पावन हो गये । आगे चलकर चित्सुखस्वामी ने इसी आश्रम मे साधना और तपस्या पूर्ण की।जगत मे चित्सुख स्वामी नाम से प्रसिद्ध हो गये ।
उनकी परंपरामे आज तक क्षीरसागर कुल मे उस मठ की समाधी पूजा अर्ज करणे का सम्मान मिला है ।क्षीरसागर कुलके वंशज को मठवाले घराणे भी कहते है I चीत्सुखानंद स्वामी के बाद वहा बालाजी क्षीरसागर भगवंत क्षीरसागर शंकर क्षीरसागर, गणपत क्षीरसागर और गणपत क्षीरसागर को प्रसाद और शिवाजी क्षीरसागर दो संताने थी प्रसाद को सुनील और शिवाजी को अविनाश क्षीरसागर ऐशी संताने है और भी दुसरे वंशज है जो ही इस मठ मंदिर का सत्संग और वार्षिक सत्संग कार्यक्रम आयोजन करते है ।
सन २०२५ मे कार्तिक शुद्ध त्रयोदशी को परमहंस की पुण्यतिथी उत्सव मनाया गया । इस पर्वकाल मे चंपावती नगर अर्थात बीड जिले के निवासी महामंडलेश्वर अमृत महाराज को सत्संग के लिये पाचरण किया था । ऊस समय उन्होने यह मंदिर की महत्ता और परंपरा बताते वक्त कहा की नारायणाश्रम की जानकारी शक संवत्सर सोलासो छप्पनबी सदी मे वैराग्य मूर्ती कृष्णदयार्णव इस संत कवीने उनके "हरिवरदा " ग्रंथ मे प्रतिपादन किया है । श्री कृष्णदयार्णव ये कृष्ण भक्त थे। श्रीमद् भागवत की दशम स्कंदपर हरीवरदा ग्रंथ टीका लेखन किया है । इस हरीवरदा ग्रंथ के उत्तरार्ध मे परमहंस नारायणस्वामी आश्रम और श्रीचित्सुखाश्रम आश्रम मंदिर का संदर्भ मिलता है । श्रीकृष्णदयार्णव स्वामीजीने मोहरी गाव का हरिवरदा ग्रंथ मे मुरलीपुर ऐसा नामाभिधान कीया है। मोहरी मतलब (मोह + री ) मोह - मुरली, री का मतलब स्वर,अर्थात मुरली का स्वर पूर पूर- नगर, ग्राम ऐसा होता है । महामंडलेश्वर अमृत महाराज ने बताया कृष्ण दयार्णव ये हे थोर संतकवी और संतवांड़मय के अभ्यासक हो गये I उनके साहित्यके लिखाण पर शांतिब्रह्म एकनाथ महाराज संत रामदास महाराज संत ज्ञानेश्वर महाराज के साहित्य, एकनाथी रामायण, दासबोध, और ज्ञानेश्वरी ग्रंथ का प्रभाव मिलता है । हरीवरदा ग्रंथ नवरससे भरा हुआ है । रसाल और मधुर शैली मे काव्य ग्रंथ की प्रतिभा प्रकट हुयी है । और ज्ञान वाचक के आत्मा को छू जाता है । कृष्णदयार्णव का वास्तव्य भी नारायणाश्रम स्वामी मे हुआ था। उन्होने हरिवरदा ग्रंथ का बहुत साभाग लेखन यही आश्रम मे किया है। जो आज मोहरी नामक ग्रामसे प्रसिद्ध है वही कृष्णदयार्णव का मुरलीपुर है ।

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