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मीडिया के स्लोगन: निर्भीकता का दावा या वास्तविकता का आईना?

मीडिया के स्लोगन: निर्भीकता का दावा या वास्तविकता का आईना?
हरिशंकर पाराशर
7 नवंबर 2025 की तारीख में, जब समाचार चैनल और अखबार अपनी वेबसाइटों पर चमचमाते स्लोगन टंगे रहते हैं—'निर्भीक पत्रकारिता', 'निष्पक्ष खबरें', 'निडर आवाज'—तो एक आम नागरिक का मन स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठाता है: क्या ये शब्द वाकई मीडिया की रीढ़ हैं, या फिर ये महज मार्केटिंग के टूल? वर्षों से ये स्लोगन दर्शकों को लुभाते आए हैं, लेकिन जब वास्तविकता का पर्दा हटता है, तो अक्सर एक विपरीत चित्र उभरता है। क्या मीडिया इन स्लोगनों को पूरा कर पा रहा है, या फिर ये दावे लोगों की अपेक्षाओं को ठगते हुए एक कड़वी सच्चाई का सामना करवा देते हैं? इस लेख में हम इसी द्वंद्व को टटोलेंगे, जहां सिद्धांत और व्यवहार के बीच की खाई दिन-ब-दिन चौड़ी होती जा रही है। 2025 में भी, डिजिटल मीडिया के विस्तार के बावजूद, विश्वास का संकट गहरा ही होता नजर आ रहा है।
पत्रकारिता का मूल मंत्र रहा है—सच्चाई की खोज, सत्ता की निगरानी और समाज की आवाज बनना। 'निर्भीक' शब्द का मतलब है बिना डरे सवाल पूछना, चाहे वह सत्ताधारी हो या विपक्ष। लेकिन हाल के वर्षों में हमने देखा है कि कैसे मीडिया हाउस कॉर्पोरेट हितों के आगे झुक जाते हैं। उदाहरण लीजिए, बड़े उद्योगपतियों के घोटालों पर चुप्पी साध लेना या राजनीतिक दबाव में खबरों को तोड़-मरोड़ देना। 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान कई चैनलों ने 'निष्पक्ष' होने का दावा किया, लेकिन रिपोर्ट्स में पक्षपात की बू आ गई। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, प्रमुख न्यूज चैनलों में कवरेज में सत्ताधारी दल के पक्ष में असंतुलन स्पष्ट था, जहां हेट स्पीच और मिसइनफॉर्मेशन का बोलबाला रहा। यह 'निष्पक्षता' कहां है? यह तो खुला तौर पर प्रचार का रूप ले लेता है, जहां दर्शक खुद को ठगा महसूस करते हैं। 2025 में भी, चुनावी विश्लेषणों में यह ट्रेंड जारी है, जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने पारंपरिक मीडिया को पीछे छोड़ दिया, लेकिन मिसइनफॉर्मेशन का खतरा बढ़ गया।
'निडर' स्लोगन का क्या कहना? यह शब्द पत्रकारों को साहसी योद्धा का रूप देता है, लेकिन जमीनी हकीकत उलट है। फील्ड रिपोर्टरों पर हमले, संपादकों पर दबाव, यहां तक कि फेक न्यूज के नाम पर सेंसरशिप—ये सब आम हो चुके हैं। याद कीजिए 2024 का किसान आंदोलन, जब पंजाब और हरियाणा से हजारों किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे। कई मीडिया हाउस ने इसे 'अराजकता' का नाम दे दिया, जबकि वास्तव में यह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग पर आधारित लोकतांत्रिक संघर्ष था। पत्रकारों को 'निडर' कहने वाले चैनल खुद उन रिपोर्ट्स को दबा देते हैं जो 'असुविधाजनक' हों। सोशल मीडिया पर तो हालत और खराब है—ट्रोल आर्मी और पेड प्रमोटर्स के आगे 'निर्भीक' आवाजें चुप हो जाती हैं। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट के 2025 डिजिटल न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में समग्र मीडिया ट्रस्ट मात्र 36 प्रतिशत रह गया है, जो पर्सनल न्यूज के लिए 39 प्रतिशत तक सीमित है, खासकर युवाओं में जहां रुचि और विश्वास घट रहा है। स्टेटिस्टा के 2024 सर्वे में भी संस्थागत ट्रस्ट में गिरावट का सिलसिला चला आ रहा है, जहां युवा वर्ग में यह आंकड़ा काफी कम नजर आता है।
यह विपरीत अनुभव केवल भारत तक सीमित नहीं। वैश्विक स्तर पर भी, जैसे अमेरिका में 'फेक न्यूज' का बोलबाला या ब्रिटेन में 'लीक्स' पर सेंसरशिप, दिखाते हैं कि मीडिया कहीं न कहीं सत्ता और पूंजी के जाल में फंस गया है। भारत में डिजिटल मीडिया का उदय तो उम्मीद जगाता है—2025 में 80 करोड़ से अधिक इंटरनेट यूजर्स के साथ 49 करोड़ सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हैं, और न्यूज कंजम्प्शन में सोशल वीडियो का हिस्सा 65 प्रतिशत तक पहुंच गया है—लेकिन एल्गोरिदम और विज्ञापनों की दौड़ में यह भी स्लोगनों का शिकार हो रहा है। क्या समय आ गया है कि हम इन स्लोगनों को सिर्फ दिखावे से हटाकर वास्तविक प्रतिबद्धता में बदलें? नियामक संस्थाओं जैसे प्रेस काउंसिल को मजबूत करना, पत्रकारों को सुरक्षा देना और दर्शकों को मीडिया साक्षरता सिखाना—ये कदम जरूरी हैं। 2025 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 151वें स्थान पर पहुंचा है, जो पिछले वर्ष के 159वें से सुधार तो दर्शाता है, लेकिन फिर भी 'समस्या पूर्ण' श्रेणी में बरकरार है।
अंत में, मीडिया के स्लोगन लोगों की अपेक्षाओं को जगाते हैं, लेकिन जब वास्तविकता इनका उल्लंघन करती है, तो विश्वास का संकट गहरा जाता है। 'निर्भीक, निष्पक्ष, निडर' महज शब्द नहीं, वादे हैं। अगर इन्हें पूरा न किया गया, तो पत्रकारिता का आईना टूट जाएगा। पाठकों से अपील है—अपनी खबरें खुद जांचें, सवाल पूछें। यही सच्ची निर्भीकता होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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