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छह महीने में एक वाहन की रिहाई — न्याय या व्यवस्था की विफलता? पत्रकार का सवाल, क्या यही हैं हमारे मानवाधिकार?

उत्तर प्रदेश की न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े हो रहे हैं, जब एक साधारण वाहन की रिहाई और अवमुक्ति में पूरे छह महीने लग गए। पहले दो बार सिविल कोर्ट ने आवेदन खारिज किया, फिर जिला न्यायालय के आदेश के बाद ही मामला निपट सका।

एक मामूली मामले में इतनी लंबी देरी इस बात का प्रतीक है कि हमारी न्याय व्यवस्था कितनी बोझिल और सुस्त होती जा रही है। क्योंकि “देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं होता।”

एक पत्रकार के रूप में मैं उत्तर प्रदेश शासन और प्रशासन से यह पूछना चाहता हूँ — क्या यही हमारे देश के मानवाधिकार हैं? क्या जनता को समय पर न्याय मिलना अब भी सिर्फ एक उम्मीद बनकर रह गया है?

नागरिक प्रतिक्रिया:
लोगों का कहना है कि यह मामला किसी एक व्यक्ति या वाहन का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की सुस्ती और जवाबदेही पर सवाल खड़ा करता है। अब समय है कि शासन और न्यायपालिका दोनों मिलकर ऐसी देरी को खत्म करने की ठोस पहल करें — ताकि जनता को सच्चा और समय पर न्याय मिल सके।

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