
यदि हिंदू विवाहकर्ता जान पाते महिलाओं के कर्तव्यहीन कानून को, तो शादी से पहले सोचते दो बार
जयपुर, 24 अक्टूबर:
भारतीय विवाह परंपरा जहाँ पति-पत्नी के साझा दायित्वों पर आधारित रही, वहीं आधुनिक कानून ने विवाह को अधिकार-प्रधान अनुबंध में बदल दिया; न्यायिक फैसलों में अधिकारों की गूंज, लेकिन समान जिम्मेदारी की चर्चा दुर्लभ
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने भारतीय महिलाओं को आधुनिक कानूनी अधिकार प्रदान किए हैं जिनमें तलाक, भरण-पोषण, संपत्ति अधिकार और न्यायिक संरक्षण शामिल हैं, लेकिन अधिनियम में महिलाओं के कर्तव्यों को कानूनी मान्यता या दण्डात्मक प्रावधानों से जोड़ने की कमी विवाहकर्ताओं में गहरी उलझन पैदा कर रही है।धारा 24, 25 के तहत महिला को भरण-पोषण का अधिकार तो सुरक्षित है, लेकिन पति के प्रति उनकी कानूनी जिम्मेदारियां सीमित हैं। धारा 9 के अंतर्गत वैवाहिक सहवास की बहाली का प्रावधान कुछ विवादित पक्ष भी लेकर आता है, जो महिलाओं के निजी अधिकारों से टकराता है।अधिकांश विवाहकर्ता, विशेष रूप से पुरुष, इन कर्तव्य विहीन अधिकारों की सूक्ष्मताओं से अनजान होते हैं। इस अज्ञानता का दुष्परिणाम यह होता है कि शादी के बाद जब वे इन अधिकारों के दायरे में आते हैं, तो विवाह में तनाव, आर्थिक और भावनात्मक दबाव उत्पन्न होता है जिससे वैवाहिक टूटन का खतरा बढ़ जाता है।विशेषज्ञों के अनुसार, आवश्यकता है कि विवाह से पहले दोनों पक्षों को पुरुष हो या महिला अदालती अधिकार, न्यायिक प्रक्रिया और साथ ही विवाह में कर्तव्य-उत्तरदायित्व की समझ दी जाए। साथ ही कानून में सुधार कर महिलाओं के कर्तव्यों को भी वैध मान्यता मिलनी चाहिए, ताकि विवाह में पारस्परिक सम्मान एवं जिम्मेदारी बनी रहे।वर्तमान असंतुलित कानूनी संरचना और विवाहकर्ता की अनजानियां यदि जारी रहीं तो यह न केवल व्यक्तिगत परिवारों के लिए बल्कि समाज के लिए भी गंभीर चुनौती बन सकती हैं। विवाह की पवित्रता और स्थिरता बनाए रखने के लिए जागरूकता और नीति सुधार अनिवार्य हैं।
यह खबर समाज में विवाह करने वालों को जागरूक करने, उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन लाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
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