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सत्ता का दंभ और नागरिक का अपमान: मेरठ से उठता लोकतंत्र के क्षरण का सिग्नल

सत्ता का चरम अक्सर लोकतंत्र के सबसे कमजोर बिंदु को उजागर करता है — आम नागरिक का सम्मान और उसका अधिकार। उत्तर प्रदेश के मेरठ से आया ताज़ा उदाहरण न केवल स्थानीय प्रशासन की संवेदनहीनता दिखाता है, बल्कि यह बताता है कि सत्ता के नशे में आज आम आदमी के अधिकार किस तरह कुचले जा रहे हैं।

मंगलवार की रात मेरठ के व्यापारी सत्यम रस्तोगी अपने मित्र के साथ भोजन करने होटल पहुंचे थे। पार्किंग को लेकर हुए विवाद में भाजपा से जुड़े स्थानीय नेता विकुल चपराणा ने उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया, ज़मीन पर नाक रगड़कर माफ़ी मंगवाई — और यह सब पुलिस की मौजूदगी में हुआ। वीडियो वायरल हुआ, लोग विचलित हुए, पर जिस तरह यह घटना जन-संवेदना की बजाय जन-सहमति में बदलती दिखी, वह अधिक भयावह है।

ऐसा प्रतीत होता है कि जनता अब यह स्वीकार करने लगी है कि सत्ता के करीबियों या प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों के पास यह विशेषाधिकार है कि वे कानून को अपने हिसाब से मोड़ सकें। यह वह स्थिति है, जहां संविधान में परिभाषित समानता, सम्मान और गरिमा के मौलिक अधिकार केवल पुस्तकीय अवधारणाएँ बनकर रह जाती हैं।

# कानून के आगे सत्ता का सिर ऊँचा क्यों?

वीडियो में साफ दिखता है — पुलिस अधिकारी मौके पर मौजूद हैं, पर हस्तक्षेप नहीं करते। एक और क्लिप में पुलिस खुद व्यापारी पर माफ़ी मांगने का दबाव बना रही है। जब रक्षक ही तमाशबीन या दबाव का माध्यम बन जाएँ, तो नागरिक अधिकारों की रक्षा का नैतिक आधार ही खो जाता है।

विकुल चपराणा खुद को ऊर्जा राज्यमंत्री डॉ. सोमेंद्र तोमर का भाई बताते रहे हैं, और कई बार भाजपा मंचों पर दिखाई दिए हैं। यह निकटता ही सत्ता का नया हथियार बन चुकी है — “मैं मंत्री का आदमी हूँ” कहना आज स्थानीय प्रशासन के लिए किसी वारंट से कम नहीं।

# राजनीति का दोहरा चेहरा

विडंबना देखिए — यही भाजपा, जिसने कुछ माह पहले प्रधानमंत्री की माता पर कथित अपशब्दों को लेकर बिहार बंद करवाया था, वही पार्टी अब अपने कार्यकर्ता द्वारा किए गए सार्वजनिक अपमान पर केवल प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मुक्त हो जाती है।
डॉ. सोमेंद्र तोमर का बयान — “जो दोषी होगा, सज़ा मिलेगी” — जितना संतुलित लगता है, उतना ही उससे राजनीतिक दूरी साधने की चतुराई भी झलकती है।

सवाल यह है कि क्या पुलिस कार्रवाई के बाद पार्टी की आंतरिक जवाबदेही तय हुई? क्या यह सुनिश्चित हुआ कि सत्ता के नाम पर किसी को अपमानित करने की मानसिकता पर रोक लगे?

# लोकतंत्र की आत्मा पर चोट

मेरठ की यह घटना केवल स्थानीय नहीं है — यह लोकतांत्रिक संस्कृति के क्षरण का प्रतीक है।
जब जनता ही अन्याय को “सामान्य” मानने लगे, तब सत्ता का दुरुपयोग संस्थागत रूप ले लेता है।
संविधान ने नागरिक को जो गरिमा दी है, वह तभी सार्थक है जब नागरिक स्वयं उसे बनाए रखने का साहस दिखाए। यदि नागरिक मौन हो गया, तो संविधान भी मौन दस्तावेज़ बन जाएगा।

# पार्टी कार्रवाई और राजनीतिक जवाबदेही

भाजपा के क्षेत्रीय अध्यक्ष ने विकुल चपराणा को निलंबित करने का पत्र जारी किया है — लेकिन इससे ज़्यादा गंभीर सवाल यह है कि ऐसे लोग सत्ता संरचना के भीतर जगह पाते कैसे हैं? राजनीतिक दल जब निष्ठा से अधिक निष्ठुरता को पुरस्कृत करने लगें, तब लोकतंत्र की आत्मा पर आघात होता है।

पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बयान — “भाजपाई सत्ता के अहंकार में चूर होकर किसी को भी अपमानित करने से नहीं चूकते” — महज़ विपक्षी प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक राजनीतिक चेतावनी है कि “हर दंभ का अंत होता है।”

# न्याय का नहीं, नागरिकता का भी प्रश्न

विकुल चपराणा को जमानत मिल चुकी है, पर सवाल यह नहीं कि वह जेल में है या बाहर —
सवाल यह है कि क्या वह मानसिकता, जो उसे आम नागरिक का अपमान करने की अनुमति देती है, अब भी सत्ता के भीतर जीवित है?

जब तक पुलिस प्रशासन स्वतंत्र होकर कानून के पालन का साहस नहीं दिखाएगा, और जब तक नागरिक अपने सम्मान की रक्षा के लिए आवाज़ नहीं उठाएंगे, तब तक ऐसी घटनाएँ दोहराई जाएँगी — और हर बार संविधान थोड़ा और कमज़ोर होगा।

लोकतंत्र का अर्थ केवल “जनता के लिए शासन” नहीं है, बल्कि यह विश्वास भी है कि जनता की गरिमा सर्वोपरि है। मेरठ का वीडियो इसी विश्वास पर एक गहरा सवालचिह्न छोड़ गया है।

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