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अन्नकूट का क्या महत्व है?

क्या है अन्नकूट और क्यों?
सनातन परंपरा में
दीपावली के बाद, अगले दिन। मंदिरों में अन्नकुट का प्रसाद वितरित होता है।
आखिर क्या महत्व है। इस परंपरा का?

अन्नकूट का बहुत बड़ा महत्व है।
इस दिन घरों में भोजन नहीं बणाया जाता था,
धार्मिक या सार्वजनिक स्थल पर शुद्ध सात्विक भोजन तैयार किया जाता है।
इसमे कढी महत्वपूर्ण होती है।
अगर स्वास्थ्य विज्ञान से देखें तो अन्नकूट का औषधीय महत्व है।
कढी:-
हमारे भारतीय घरेलू भोजन में कढी का बहुत महत्व है। उत्तरी भारत में शायद ही कोई घर हो जिसमें कढी न बणती हो।
हांलाकि वक्त के अनुसार आज इसको बणाने में आधुनिक गृहणियों ने अपनें संसाधनों के अनुसार इसमें बहुत बदलाव कर दिये हैं। लेकिन फिर भी इसके औषधीय गुणों को नकारा नहीं जा सकता।
गाय हमारा महत्वपूर्ण पशु था।
इसके दूध से अनेक खाद्य पदार्थ तैयार होते हैं। वैसे मैं यहां यह बताणा चाहूंगा कि आज से लगभग पचास साल पहले तक हमारे ग्रामीण जीवन में प्रात काल दूध का सेवन बहुत कम होता था। नास्ता जिसे कलेवा कहते थे में छाछ या दही का उपयोग रात में बची हूई खिचड़ी या दलियें के साथ किया जाता था।
खैर छोटे बच्चों बटेऊ आदि के लिये घरेलू जरूरतों को पूरा करणे के बाद जो दूध बच जाता था।उस गाय के दूध को कढोणी में डाल कर हारे में धीमी आंच पर पकणे के लिये रख दिया जाता था।शाम तक यह दूध पक कर लाल हो जाता था। समयानुसार भैंस के दूध को भी इसी प्रकार प्रयोग किया जाता था।
दिन ढलते ही गर्म दूध से दलिया या खिचड़ी सभी खाते थे। इसमे घी का भी भरपूर प्रयोग होता था।
इसमें से बची खिचड़ी या दलिया अगले दिन सबेरे कलेवे में खाया जाता था।
अब दिन भर कढोणी मे पके दूध को बिलोणी में डाला जाता था और उसमे शाम का बचा हुआ दूध भी डालकर जामण लगा कर यानि कुछ छाछ या दही डाल कर जमाणे के लिये ढकर रख दिया जाता था।
प्रात काल उठकर गृहणियां दादी बिलोणी जिसमें रात को रखा दूध दही बण जाता है। को रख कर झेरणी डाल कर नेते से दूध को बिलोती थी।
इस दौरान वह भजन भी गाती रहती थी।मक्खन अलग करणे के बाद जो कणोढी में रहता था उसे छाछ कहते थे।
यह अमृत तुल्य होता था। यह सभी काम मिट्टी के बर्तनों में होता था। आज बदले वक्त के अनुसार सब बदल गया है मिट्टी की कढोणी और बिलोणी धातू की हो गई है इसलिये अब इनमे तैयार दही,मक्खन, छाछ जहरीले हो चुके है।
खैर दीपावली से लगभग दस से पंद्रह दिन पहले घरों से इस छाछ को एक लोहे की कढाई मे इकट्ठा किया जाता था।
अन्नकूट वाले दिन इस लोहे की बड़ी कढाई में चुल्हे पर धीमी आंच में छाछ में बेसण, नमक,मिर्च, धणिया,सरसों जीरा ,मूली,पालक, जैसी घरेलू मसाले,सब्जियांं डाल कर पका कर तैयार किया जाता था। इसी के साथ साथ मौसमी फसल के अन्न से तैयार सब्जी ,खिचड़ी तैयार की जाती थी । तब बस्ती के लोग पंगत में बैठ कर भोजन करते थे और बाद मे भजन।
जरूरत मंदो को घर के लिये अन्नकूट का यह प्रसाद दिया जाता था।
यह इसका सामाजिक महत्व था।
कढी क्यों:-
हमारे दैनिक जीवन मे घी दूध यानि गरिष्ठ भोजन बहुत खाया जाता था। इससे हमारा पाचन तंत्र प्रभावित होता था।
इसलिए सप्ताह मे एक बार कढी हर घर में जरूर बणती थी जो हमारे पाचन तंत्र को ठीक रखती थी।
घर मे भी मिट्टी की हांडी में कई दिन की बची हुई छाछ जो खट्टी हो जाती थी को से ही मिट्टी की हांडी में हारे की धीमी आंच पर पकाया जाता था जिसे कढी कहा जाता था। कढी यानि उपलों की धीमीं आंच पर खूद अच्छी तरंहां से कढ जाये यानी पक जाये । उसे कढी नाम दिया गया।
कढी खाने का महत्व।
दीपावली पर भी घरों मे बहुत घी।
यानि गरिष्ठ भोजन बहुत खाया जाता था।
इसी को ध्यान में रखकर अगले दिन सार्वजनिक तौर पर सार्वजनिक स्थान पर शुद्ध और औषधीय भोजन तैयार करने की परंपरा शुरू की गयी। इस भोजन को तैयार करणे मे सभी की भागीदारी भी रखी गयी थी।
बस्ती की हर जाति वर्ग के सहयोग से जो भोजन तैयार किया जाता था उस अन्नकूट नाम दिया गया था। यानि जो बिना कुटे हुए पदार्थों से तैयार किया गया हो। इसके बाद इसे प्रसाद के तौर पर मंदिर में ही बैठकर सभी मिल जुल कर जीमते थे।
इस परंपरा का कई बदलावों के साथ आज भी निर्वाह होता है।कढी घरेलू छाछ से बनती है। दही से नहीं बनती
है न हमारा सनातन महान।
जगदीश, हाँसी।98 963 66321
कढी

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