
दिवाली का त्योहार क्यों मनाया जाती है? सनातन में क्या था इसका महत्व।
दिवाली पर विशेष।
दीपावली आखिर क्यों मनायी जाती है?
हमें यह बताया गया है कि जब भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास काट कर अयोध्या वापिस आये थे तब उनके आने की खुशी में दीप जला कर लोगों ने खुशियां मनाई थी।
और यह सब हमारे जहन में इस कदर बैठ गया कि हम अपनी सनातन विरासत का असली मकसद न समझ कर वह करणे लगे जो हमारे जहन में ठोक दिया गया है।
मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि ऐसा हुआ होगा।
लेकिन जब बात आती है सनातन की तो हमे यह सोचना और समझना होगा की आखिर सनातन की दुहाई क्यों दी जाती है? ऐसा क्या है या था सनातन मे कि उसे हम सब महान कहते हैं।
तो बस इतना समझ लें कि भारत के उत्तर पश्चिम में एक विशाल भूः खंड पर हजारों साल पहले मनुष्य ने अपनी हजारों साल की मेहनत के बाद यहां के मनुष्य ने एक ऐसी नैतिकता से परिपूर्ण संस्कारों से युक्त सभ्यता, संस्कृति वाले मानव समाज की संरचना कर डाली थी। जिसे देखने समझने दुनिया के दूसरे छौर मे आबाद मानव समाज के लोग भी आते थे।
हिंदू सनातन सभ्यता का एक अंग है।
सनातन सभ्यता वैज्ञानिक, सामाजिक और कल्याणकारी सिद्धांतों पर आधारित क्रिया कलापों पर आधारित मानव समाज था।
उस समाज मे मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी क्रियाकलाप होते थे वह
जीयो और जीणे दो
के दर्शन सिद्धांत पर आधारित होते थे। मतलब कि मनुष्य का हर कार्य के पीछे वसुधैव कुटुंबकम्
को ध्यान मे रख कर कल्याणकारी उद्देश्य होता था। और उसको व्यवहार में लाणे से पहले गहन चिंतन मनन होता था।
सभी पहलुओं पर गौर करणे के बाद ही उसे समाज मे आचरण के लिये लागू किया जाता था।
इन्हीं मे खानपान, रहण सहण, आवरण, आचार, विचार, व्यवहार आपसी संबंध आदि थे
जिसकी एक झलक आज भी हमें हमारे ग्रमीण क्षेत्र में देखने को मिल जाती है।
तो आईये इस विषय को अधिक लंबा न कर समझने की कोशिश करें।
दुनिया में भारतीय उपमहाद्वीप ही एक ऐसा विचित्र भू खंड है। जिसकी भौगोलिक परिस्थिती मे हर प्रकार विभिन्नता है।
इसी लिये हर प्रकार के मौसम जलवायु यहाँ पायी जाती है। क्षेत्रीय भौगोलिक और जलवायु की विभिन्नता के अनुसार ही जीवजंतु, वनस्पति, खाद्य पदार्थ, पाये जाते है।
छः प्रकार की ऋतु जहां मिलें वह दुनिया में यहु एक भू खंड है। हर दो माह बाद ऋतु बदल जाती है और वर्ष में दो एक बार बड़ा ऋतु परिवर्तन होता है।
हजारों साल पहले यहाँ के मानव समाज के एसे बुद्धिमान लोग रहे हैं जिन्होंने ने प्रकृति का बहूत ही गहनता और सूक्ष्मता से अध्ययन किया था , और उसके बाद ही समाज को जीवन जीने के कल्याणकारी सिधांत दिये थे।
साल मे दो बड़ी ऋतु सर्दी और गर्मी आती हैं।
क्या आपने कभी गौर किया है कि इन दोनों ऋतुओं के संगम समय पर हमारे देश मे दो बहुत ही मह्त्वपूर्ण त्योहार मनाये जाते हैं।
गर्मी से सर्दी की तरफ कदम बढते समय- दीपावली,
सर्दी से गर्मी की तरफ कदम बढाते समय- होली।
और दीपावली अमावस्या की रात को मनाई जाती है तो
होली पूर्णिमा की रात को।
आखिर क्यों?
बस यही वह रहस्य है। अगर हम हमारे सनातन के गूढ रहस्यों को समझ सकें तो हम हैरान रह जायेंगे हमारे हजारों साल पहले हमारे पूर्वज कितने महान थे।
अब हम समझें कि दीपावली मनाने के पीछे वैज्ञानिक, व्यवहारिक, जनकल्याणकारी सामाजिक क्या उद्देश्य और महत्व है।
आप देखें की दीपावली से दो माह पहले वर्षा के होते हैं। जो भयंकर गर्मी के बाद शुरू होती है। जमीन, आकाश,पाताल तक सब गीला हो जाता है। हवा में भयंकर नमी आ जाती है घर के भीतर भी नमी पहुंच जाती है। कपड़े लत्तों में भी नमी हो जाती है। इस नमी से रोगारूणुओं की भरमार हो जाती है। कीट,पतंगे,मच्छर, मक्खी जीना दुभर कर देते हैं।
तो इसके तुंरत बाद श्राद्ध पक्ष शुरु हो जाता है। जिससे लोग घरों मे सात्विकता से आचरण करते हैं व अपने पूर्वजों को याद कर उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। इसके तुरंत बाद नवरात्र शुरू हो जाते है।
इसके साथ साथ मौसम बदलाव भी हो रहा होता है। जिसके अनुसार हमारी सोच विचार, व्यवहार खानपान पर ध्यान देकर ऐसा करवाया गया है।
नवरात्र में लोग वृत करते है व नारी सम्मान और उसके भीतर नौ प्रकार की सोच विचार और उसकी शक्तियों से परिचय करवाते हुए उनके प्रति अपनी सोच विचार पर नियंत्रण रखने की क्रिया शुरू हो जाती है। व्रत इस लिये कि यह समय गर्मी से सर्दी की तरफ प्रवेश होता है तो हमारे शरीर मे भी परिवर्तन होता है ऐसे मे शरीर को स्वास्थ्य रखणे और सर्दी के लिये तैयार करने की क्रिया शुरू हो जाती है।
नवरात्र जाते ही दीपावली तक का समय वह होता है जब आकाश मे सूर्य और अन्य ग्रहों की स्थिति भी परिवृत्ति होने लगती है। सूर्य की तेज रोशनी यानि रश्मियों में विशेषता मैडिकेटिड होती है।
इन दिनों हम अपने घरों की सफाई करते है पहले लगभग घर कच्चे होते थे इस लिये उनकी दिवारों पर गाय के गोबर और गारा से लिपाई होती थी। जिससे दिवारों में हवा में सीलण के कारण कीटों और रोगारूणुओं ने जो जमावड़ा लगाया था वह खत्म हो जाये।
बाद मे चूने से पुताई का चलण हुआ तो रोगारूणुओं से और अधिक मुक्ति मिलणे लगी।
इसी दौरान घर के तमाम कपड़े, बिस्तर को बाहर धूप में डाला जाता था ताकि रोणाणु ,बदबु खत्म. हो जाये और सर्दी के मौसम मे प्रयोग होणे वाले वस्त्र और बिस्तर रोगाणु मुक्त हो जायें। तथा गर्मियों में प्रयोग किये गये कपड़ो को धूप लगाकर रोगाणु मुक्त कर संदूकों मे रखा जा सके।
इसी के साथ साथ अपने मकान व अन्य भवनों व आसपास के क्षेत्र की साफ सफाई की जाती है।
यह करते करते बीच में छोटे त्योहार भी आते रहते हैं जिससे महिलाऐं मनाती है उनके अपणे अलग भावनात्मक महत्व हैं।
अब मैं यहा यह भी बताणा चाहूंगा की दीपावली से लगभग एक माह पहले खेत,जंगल या बाग बगीचों में पड़े सूखे वृक्षों के ठूंठों मे वर्षा के कारण खुंबी यानि कुकुरमुत्ता की प्रजाति की एक फफूंद लग जाती थी जो बहुत तेजी से विकसित होकर एक से दो फूट तक चौड़ाई का आकार ले लेती थी। वर्षा के बंद होते ही.यह सूर्य की रोशनी पड़ते ही सख्त होकर सूख जाती थी। इसे हरियाणा मे सिबतड़ा कहा जाता है।
लोग इसे तोड़ कर घर लाकर सरसों, तील के तेल को किसी पात्र में भर कर उसमें सिबतड़े को भीगने के लिये छोड़ दिया जाता था।
दीपावली से एक दिन पहले छोटी दीपावली मनाई जाती है।
इस दिन लोग अपणे घरों के अंदर बाहर दिवारो पर आले में कम संख्या में दीपक जलाते हैं। इसके साथ साथ घर के बाहर गंदे पाणी के संग्रह के निकट व घर से बाहर निकलणेवाले गंदेपाणी की मोरी पर भी दीपक लगाते थे इसे मोरी दिया कहा जाता है।
दीपावली के की रात को सभी लोग अपणे अपणे घरों के अंदर और बाहर, मुढेर पर दीपक जला कर रखते हैं। दीपक में रुई की बत्ती और गाय का घी या सरसों का कड़वा तेल डाला जाता था।
घर में देशी घी मे घरेलू पकनवान बणते थे। जोत पूजा जो एक प्रकार से छोटा सा हवन होता है। मतलब कि गाय के गोबर के उपले जो चूल्हे में सुलग रहे थे। उन दहकते हुए बिना घुंए के अंगारों को एक दीपक के सामणे रखा जाता था। दीपक के पास पानी का लोटा ओर कुछ अनाज रखा जाता है। उसके बाद चमच से उन अंगारों पर थोड़ा थोड़ा घी डाला जाता है। इससे घर मे घी के सुगंध वाला घुंआ हो जाता है। और जैसे ही अंगारों से अग्नि प्रवज्जलित होती है तो घर मे बणाये गये पकवान और घी का भोग उस हवन में लगाया जाता है।
इसके बाद लोटे के पाणी से कार.लगा दी जाती है।
और तब घर के लोग खाणा खाते हैं।
अब सभी अपणे घरों से बाहर निकलते हैं।सारी बस्ती में घी से जलने वाले दीपक और घरों मे हवन के घुएं से सुगंध भरी हवा होती है।
इसके बाद शुरू होता था असली खेल
जिस सिबतड़े को घी या तेल में भीगणे रखा था उसे बाहर निकाला जाता है और उसे उस समय चरखे के ताकू लोहे का वह बड़ा सूआ जिस पर सूत काता जाता था। वह दोनों तरफ से नुकिला होता है उसके एक सिरे को लम्बी लाठी या डंडे में खोंसा जाता है व दूसरे सिरे पर सिबतड़े को लगा कर आग लगाई जाती है। यहां यह भी विचारणीय है कि यह आग ऊपर को रहती है आग और लाठी के बीच मे ताकू का इतना फर्क रहता है कि आग लाठी को नहीं जलाती।
इसके बाद यह एक ऊंची मसाल नुमा बण जाती है जिसे समझदार बच्चे और जवान छोरे लेकर टोलियों में गलियों में घुमते हैं हिड़ो हिड़ो कहते हुए अपनी हीड़ो एक दूसरे से उपर की तरफ करते हुए।
अब गांव.बस्ती की यह टोलियां देर रात तक गलियों मे व बस्ती के बाहरी भाग में घुमती थी। खेल का खेल और एक महिन उद्देश्य पूरा।
समझे क्या। यानि वातावरण शुद्धि। हवा मे जितणे रोगाणु, कीट पतंगे है सभी रोशनी में आ कर खत्म व हवा मे भरपूर आक्सीजन। अमावस्या की रात काली होती है घनघोर अंधकार होता है। ऐसे मे थोड़ी सी रोशनी में भी कीट पतंगे तेजी से आते है और दीपक या हीड़ो की लो में जल कर भस्म हो जाते है।
अगले दिन घरों मे खाणा नहीं बणता था। गाव के मंदिर में समूहिक खाणा बणता था जिसे अन्नकूट कि प्रसाद कहा जाता था।
उद्देश्य
दीपावली की रात को लोग अपने घरों में घी मे पका गरिष्ठ खाणा खाते थे। इस लिये अब पाचनतंत्र को दुरुस्त करणे के लिये यह औषधीय खाणा।
यानि कढी
ध्यान रखिए कढी हमारे समाज का वह व्यंजन है जो एक महत्वपूर्ण आयुर्वेद औषधि है।
यह गाय या भैंस के दूध से दही और दही से मक्खन निकालने के बाद बची छाछ से बणती है। यह भी ध्यान रहे कि हमारे यहां परंपरागत घी तैयार करणे कि भी औषधीय तरीका था।
सुबह जरुरत के दूध के उपयोग के बाद जो बच जाता था उस दूध को मिट्टी के घड़ेनुमा पात्र कढोणी में डालकर हारे में धीमी आंच पर दिनभर गर्म किया जाता था, जो शाम तक पक कर लाल हो जाता था।
शाम को इस पके हुए दूध में शाम के दूध को गर्म कर अन्य पात्र बिलोणी में डालकर जामण लगा कर दही जमणे के लिये रात भर रख दिया जाता था।
प्रात चार बजे उठकर घर की सीनियर गृहणियां एक कौणें में बिलोणी में झेणी डालकर मथणे लगती थी तो दूसरे कौणे में चक्की पर दूसरी महिला अनाज पीसने लगती। दोनों की कसरत होती और घर का काम भी । इसप्रकार दही से मक्खन और छाछ तैयार होते यह मक्खन भी पोष्टिक औषधि था तो छाछ भी।
घर मे उपयोग के बाद बची छाछ को एक अन्य दूसरे बर्तन में ढकर रख दिया जाता था दो तीन दिन के बाद जब यह खट्टी हो जाती थी तब घर की चक्की से पीसे चणे के छिलके समेत बेसण से हारे में मिट्टी के पत्र में धीमीं आंच पर कढी बणती थी।
अब आप समझ सकते है कढी का असली स्वरूप ।
मंदिर मे भी छाछ को हफ्तों पहले संग्रह किया जाता था अन्नकूट वाले दिन उसे लोहे की कढाई में लोहे के पल्टे से कितने ही प्रकार की सब्जियां डालकर साधारण मसालों से धीमी आंच पर तैयार किया जाता था।
इसी प्रकार अपने खेतों से प्राप्त साग सब्जियांं, चावल,बाजरा, मूंग,मोठ तैयार होते थे।
यह अन्नकूट का प्रसाद सभी खाते थे।
अब उद्देश्य
अब बात यह है कि दीपावली तो भगवान राम के जन्म से भी बहुत पहले से मनाई जाती रही है। इस दिन भगवान राम अयोध्या आये थे।
इसी नहीं दिन को सिख समुद्राय आर्य समाज भी अपने तरीके से मनाते है।
खैर
दीपावली
वातावरण, पर्यावरण शुद्धि।
अन्नकुट पाचन तंत्र शुद्धि।
के लिये हमारी परंपरा में हैं।
हम कहां भटक गये और मुख्य उद्देश्य छोड़कर विपरीत आचरण करणे लगे तो हमारे चेतना हीन कुकृत्यों ने वातावरण को जहरीली गैस चैंबर दिया है।
इसलिए सनातन की जय जयकार करणे के साथ साथ सनातन संस्कृति, सभ्यता,पंरपराओं और संस्कारों का अध्यन जरूर करें।
जय भारत।
जगदीश ,हाँसी।