"बिखरी लाशें,दम तोड़ती सांसे"
💔🌾 शीर्षक :
“बिखरी लाशें, दम तोड़ती साँसे”
(१) 🌿
सूखी रोटियों पर झगड़ते बच्चे,
माँ की आँखों में जलते लक्खे,
अध पेट रातें, अधूरे सपनों की सांऐ,
मौन चीखती हैं टूटती रही पाऐ। 🌿
(२) 🌾
जिस खेत ने सबको अन्न दिया,
आज खुद भूखा पड़ा वहीं जिया,
हाथों की रेखाएँ घिसकर मिटीं,
पर पेट न भर पाया एक भी दिया। 🌾
(३) 🌸
पसीने में भी, आँसू मिल जाते,
रोज़ उम्मीद के नये दीप बुझ जाते,
पर रोटी का टुकड़ा परब बन गया,
कितने सपने बिखर राख हो जाते। 🌸
(४) 🌼
सरकारी आँकड़े मुस्काते हैं,
सत्ता के गलियारों में गीत गाते हैं,
पर झुग्गियों में भूख से बिलखते बच्चे,
हर दिन मौत से लिपट जाते हैं। 🌼
(५) 🌺
नंगे पाँवों की पथरीली राहें,
भूख के संग चलती निगाहें,
माँ के आँचल में आँसू न बच पाए,
बाकी बचा सब ले गईं हवाएँ। 🌺
(६) 🌸
कितनी बार पूछा – “कब तक यूँ?”
हर उत्तर आया – “कल देखेंगे” क्यूं,
पर कल तो फिर वही भूख आई,
जो आज भी आँसू भर लेके आई। 🌸
(७) 🌾
जहाँ एक तरफ़ महलों में दावतें हैं,
वहाँ दूसरी ओर मौत की इबादतें हैं,
रोटी नहीं, बस जलते हुए चूल्हे,
आशा भी अब हार कर हार गई आदतें हैं 🌾
(८) 🌺
किसान का बेटा बिक गया बाज़ार में,
कर्ज़ का बोझ पड़ा उस परिवार में,
धरती ने आँसू पी लिए है चुपचाप,
कोई सुनता भी तो नहीं उस पुकार में। 🌺
(९) 🌿
शहर की गलियों में सोई ज़िंदगियाँ,
फुटपाथों पर ठिठकी उम्मीदगियाँ,
हर धड़कन पूछे — “क्या यही देश है?”,
जहाँ भूख जीतती, ममता हार गईयाँ। 🌿
(१०) 🌼
बड़े लोग भाषण में बोले मानवता,
पर पेट की पुकार ने तोड़ी मर्यादा,
मंदिरों में घंटियाँ गूँजती रहीं,
पर भूख ने निगल ली है साधुता। 🌼
(११) 🌸
थाली में पड़ा था बस छिलका-सा,
माँ ने कहा — “खा ले बेटा, मीठा-सा”,
खुद भूखी रही, मुस्कुराई-- फिर भी,
वो माँ क्या कम खुदा से दीप्ता-सा? 🌸
(१२) 🌺
न कोई आँकड़ा बोले सच यहाँ,
न कोई नेता सुने रुदन यहाँ,
हर चौखट पर लाश सी सन्नाटा पसरा,
हर कोने में मरती है आशा यहाँ। 🌺
(१३) 🌾
धरती के आँचल में राख भरी,
किसान की नाड़ी अब मौन धरी,
सूरज भी शरमा गया इस दृश्य से,
मानवता की मूरत धूल में पड़ी। 🌾
(१४) 🌿
फिर भी जिएगा वो गरीब किसान यहां,
क्योंकि उम्मीद उसका आख़िरी प्राण,
वो कहेगा — “अभी ज़िंदा है आस मेरी”,
चाहे बिखरी लाशें हों हर मकान। 🌿
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🌺 ✒️ यह मौलिक रचना कवि -: सुरेश पटेल ‘सुरेश’ 🖌️🖌️ की है,
किसी अन्य कवि की कृति से ली हुई नहीं है। 🌺
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