
देखिए ख़ुदा का निज़ाम (व्यवस्था)
कभी अहले देवबंद देवबंद के लोग) को तालिबानी कहा जाता था,
और आज वही तालिबान का प्रतिनिधि देवबंद का दौरे पर
🌿 **वक़्त की करवटों पर मुस्कुराता “बाबुज़-ज़ाहिर”*
इतिहास का सफ़र अपने साथ कितने ही **उतार-चढ़ाव** और **अनोखे मोड़** लिए चलता है।
जो काफ़िले कभी दुनिया की नज़र में **“दुश्मन”** समझे जाते थे,
आज **उन्हीं के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाए जा रहे हैं।**
हाय रे सियासत (राजनीति)! तेरे कितने रंग हैं —
यहाँ न कोई चेहरा स्थायी है, न कोई किरदार बेदाग़!
फिर हैरत कैसी?
**सियासत का मिज़ाज ही ऐसा है** कि कल का विरोधी आज का मेहमान बन जाता है,
और कल के ताने देने वाले आज झुककर इस्तक़बाल (स्वागत) करते नज़र आते हैं।
📜 **28 फ़रवरी 1958** — वह ऐतिहासिक दिन आज भी *दारुल उलूम देवबंद* की फिजाओं में ताज़ा है,
जब **अफ़ग़ानिस्तान के बादशाह मुतवक्किल अला अल्लाह मोहम्मद ज़ाहिर शाह**
ने इस रूहानी और इल्मी (आध्यात्मिक व शैक्षणिक) केंद्र की ज़ियारत की थी।
इन्हीं के नाम पर बने **“बाबुज़-ज़ाहिर”** आज भी उस सुनहरे दौर की ख़ामोश गवाही दे रहा है।
इस दरवाज़े की **शान और पवित्रता** —
इतिहास के हादसों, इंक़लाबों, और तूफ़ानों के बावजूद —आज भी वैसी ही बाक़ी है, जैसी तब थी।
और अब इतिहास एक नया पन्ना खोलने जा रहा है —
**शनिवार, 11 अक्तूबर 2025** को
अमारत-ए-इस्लामिया अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री
हज़रत मौलाना अमीर ख़ान मुत्तकी दामत बरकातुहुमुल आलिया
भारत के आधिकारिक दौरे के दौरान
इसी दारुल उलूम देवबंद के आँगन में क़दम रखेंगे
और अक़ाबिर (बड़े उलेमा)के सिलसिले से हदीस की सनद (प्रमाण) हासिल करेंगे।
> इस क़ाख़-ए-फ़क़ीरी के आगे शाहों के महल झुक जाते हैं।
वही हिंदुस्तान — जो कभी तालिबान के नाम से खौफ़ज़दा था,
उन्हें “दहशतगर्द” कहकर किनारा कर चुका था —
आज उन्हीं के प्रतिनिधि का इज़्ज़त और तक़रीम के साथ स्वागत करने को तैयार है।
यह कोई मामूली मंज़र नहीं,
बल्कि इतिहास की पलटती हुई बिसात है —
जहाँ अतीत की तलख़ियाँ (कड़वाहटें) और हाल के मफ़ादात (हित)
एक-दूसरे से गले मिलते दिखाई दे रहे हैं।
कभी जिस सोच को मिटाने की कोशिश की गई थी,
आज उसी सोच के लोगों को दुनिया बकायदा “सफ़ारती हैसियत”(डिप्लोमैटिक स्टेटस) दे रही है।
और उधर दारुल उलूम देवबंद—
वही रूहानी और इल्मी मरकज़ (केंद्र) —
फिर एक बार इतिहास के एक रोशन और अहम मोड़ पर खड़ा है।
उसकी अज़मतें (महानताएँ) फिर से गाई जा रही हैं,
उसकी रूहानी बुलंदियों को सलाम किया जा रहा है।
वही फिज़ाएँ, जिन्होंने कभी शाह ज़ाहिर की आमद देखी थी,
अब एक ऐसे मेहमान के इस्तक़बाल को तैयार हैं,
जिसके पीछे दुनिया का एक नया तर्ज़े-फ़िक्र (वैचारिक अध्याय) लिखा जा रहा है।
और “बाबुज़-ज़ाहिर” आज भी ख़ामोश खड़ा,
**वक़्त और सियासत के बदलते रंगों का गवाह बना हुआ है।
यह मंज़र फिर याद दिलाता है —
सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता।
न दुश्मनी हमेशा रहती है, न दोस्ती अमर।
वक़्त की लहरें तख़्तो-ताज बहा ले जाती हैं
और नए किनारे तराशती रहती हैं।
इतिहास...हर मंज़र को अपने दामन में सँभाल लेता है।
अल्लाह तआला *दारुल उलूम देवबंद को
हमेशा अपनी रहमतों के साये में रखे,
उसके इल्म और इर्फ़ान (ज्ञान और आध्यात्मिकता) के चिराग़ को
क़यामत तक रोशन रखे,
और इसे दीन की ख़िदमत का सदा क़ायम मरकज़ बनाए रखे।
> यूँ सीने-ए-ग़ीती पर रौशन, असलाफ़ का ये किरदार रहे
> आँखों में रहें अनवार-ए-हरम, सीने में दिल बेदार रहे۔