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भारतीय मीडिया और लोकतंत्र : भारतीय जनसरोकारों के विशेष संदर्भ में

भारतीय लोकतंत्र की आत्मा उसकी जनसंवेदना और जनसरोकारों में निहित है। यही संवेदना लोकतंत्र को जीवन देती है और जनता की आवाज़ को सशक्त बनाती है। इस संदर्भ में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है — क्योंकि वह न केवल सूचना का माध्यम है, बल्कि सत्ता और समाज के बीच पुल का कार्य भी करता है।

परंतु आज यह प्रश्न प्रासंगिक हो गया है कि क्या भारतीय मीडिया सचमुच जनसरोकारों की आवाज़ को प्रतिबिंबित कर पा रहा है, या फिर वह बाज़ार, सत्ता और चकाचौंध के प्रभाव में अपनी मूल भूमिका से दूर हो गया है?

बीते कुछ दशकों में मीडिया ने तकनीकी रूप से असाधारण विकास किया है। समाचार पत्रों से लेकर डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और सोशल मीडिया तक, सूचना का संसार विस्तार पा चुका है। लेकिन इस विस्तार के साथ विश्वसनीयता और जनपक्षधरता का संकट भी गहराया है। ग्रामीण भारत, किसान, मज़दूर, महिलाएँ, आदिवासी और वंचित वर्ग — जिनके मुद्दे लोकतंत्र के मूल में हैं — वे धीरे-धीरे मीडिया की मुख्यधारा से गायब होते जा रहे हैं।

आज टीवी चैनलों पर बहसें अधिकतर राजनीतिक शोर में तब्दील हो चुकी हैं, जहाँ मुद्दों की जगह व्यक्तियों पर चर्चा होती है, और जनसमस्याओं की जगह सनसनी बिकती है। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य — सत्य की खोज और समाज को जागरूक करना — कहीं न कहीं विज्ञापन और टीआरपी की दौड़ में दब गया है।

हालाँकि इस परिदृश्य के बीच भी अनेक पत्रकार, स्वतंत्र मीडिया संस्थान और जनपक्षधर प्लेटफ़ॉर्म ऐसे हैं जो अपने सीमित संसाधनों में भी सच्चाई को सामने लाने का साहस दिखा रहे हैं। यही प्रयास लोकतंत्र में उम्मीद की किरण हैं।

भारतीय लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब मीडिया सत्ता से सवाल पूछेगा, जनता के मुद्दों को केंद्र में रखेगा, और देश के आख़िरी व्यक्ति की आवाज़ को राष्ट्रीय विमर्श में स्थान देगा।

आज आवश्यकता है कि मीडिया अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को पुनः परिभाषित करे — न केवल खबरें दे, बल्कि विचार, विवेक और संवेदना का भी प्रसार करे। जनसरोकारों से जुड़कर ही मीडिया अपने असली स्वरूप को पुनः पा सकता है और लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका निभा सकता है।
भारतीय मीडिया यदि अपनी मूल भूमिका — जनहित और सत्य की रक्षा — को प्राथमिकता दे, तो वह न केवल लोकतंत्र की रक्षा कर सकता है, बल्कि उसे और अधिक जीवंत, संवादशील और संवेदनशील बना सकता है |

विवेकानंद राय, पत्रकार

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